मैं एक लड़की हूं। टूटना मेरी नियति है। नहीं मानूंगी, तो तोड़ दी जाऊंगी। नहीं, मुझ पर रोना मत। मेरे लिए आंसू व्यर्थ न करना। कभी मैं बेंगलुरू की उस भीड़ में दरिंदों के पंजों से नोची गई। तो तुम रोए। मैं मुम्बई के उस उत्सव में सड़कों पर घसीटी गई थी। तब तुम चीखे थे। उसी मुम्बई में, जहां मेरे शरीर को छलनी–छलनी कर मेरी आत्मा को झंझोड़ दिया गया था। और मुझे न ज़िंदगी मिली, न मौत। इच्छा–मृत्यु के लिए भी मेरी इच्छा न चली। न पूछी किसी ने। हां, किन्तु तुम तब भी पागलों की तरह चिल्लाए थे। न्यायालय में भी। पंजाब के होशियारपुर में मै छह साल की मासूम थी। भेड़ियों की तरह मुझे नोंच कर मार डाला। अब हरियाणा के बल्लभगढ़ में सरेआम जबरदस्ती का प्रतिरोध करने पर गोली से उड़ा दिया गया। अब ये शोर मचाना बंद करो। आक्रोश। आंदोलन। आवेश। आक्रमण। आह्वान। इतनी सी थी मैं, कभी मुन्नी खातून तो कभी बेबी फलक। ‘इंडियाज़ बेबी’ कहा था न तुमने। तब भी इकट्ठे हुए थे सड़कों पर। बुलंद आवाज़ बने थे। मुझे किसी की घिनौनी मांग के लिए सौंपा जाना तुम्हें किस तरह का धक्का पहुंचा गया था – मैं जानती हूं। मैं अपनी हर चोट पर तुम्हारा मरहम पाती हूं। मैं अपनी हर हार पर तुम्हें अपने ही करीब पाती हूं। मैं अपनी गरिमा पर हुए हर हमले में तुम्हें भी टूटता हुआ पाती हूं।
मैं अपनी हर बार होने वाली मौत से पहले दी गई मौत पर तुम्हें भी मृतप्राय पाती हूं। पहले कहां होते हो, तुम? उस समय क्यों नहीं आते? कभी तुम सरकार होते हो। बहुत गंदा, घृणित, लिजलिजा बोलने वाले तुम्हारे आस–पास होते हैं। वही, उबकाई सी बातें– मेरे कपड़ों, घूमने, हंसने और खुलकर चलने को मेरा ही दोष बताकर, नारी गरिमा पर हमला करने वालों की मदद करने वाले। और मज़े में, इस तरह चर्चा में आने वाले। फिर भी, तुम सरकार बनकर, मेरे लिए चिंता जताते हो। पिछली बार तो कानून भी बदल दिया था। जब तुम मुझे नोंचने वाले हर हाथ को सचमुच सजा देना चाहते ही हो – तो उस कलंकित हाथ को पहले ही क्यों नहीं रोक पाते? आज मैं कोमल नहीं हूं। मेरा मन कोमल है। आज मैं कमजोर नहीं हूं। तुमने मुझ पर इतनी दया दिखा दी है कि कमजोर बना दी गई हूं। आज मैं रोती नहीं। रुलाई जाती हूं। तुम मेरे साथ रोना बंद करो। हां, मैं अकेली रहना नहीं चाहती। मैं बचपन से ही लड़कों के साथ रही हूं। खेली–कूदी हूं। पापा, भाई, दोस्त पति, सब पुरुष ही तो हैं। मुझे हर तरह का प्यार पुरुषों से ही मिला है। संबल पुरुषों से ही मिला है। किन्तु अब मैं रोना नहीं चाहती। तुम लड़ो या न लड़ो, मैं लड़ूंगी। मैं तुम्हारे साथ की जगह, अपने हाथ पर भरोसा करूंगी। तुम चीखो, भीड़ वनों, भाषण दो या लेख लिखो – मुझे अब किसी की हमदर्दी नहीं चाहिए। हां, मेरी इस लड़ाई में आना हो, तो मैं खुलकर हां कहूंगी।तुम मेरे लिए लड़ो, असंभव है। किन्तु लड़ना ही होगा। क्योंकि फिर भी तुम मेरे लिए नहीं, अपनी बहन–बेटी–मां–पत्नी–प्रेमिका–मित्र के लिए ही तो लड़ोगे। लड़की के लिए लड़ना आसान नहीं होता।