सड़क पर हज़ारों किसानों की भीड़ को देखकर प्रधानमंत्री तथा केंद्र सरकार को कम से कम अब यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि किसानों की चिंतायें वाजिब हैं। हालांकि इस बार भी सत्ता में बैठे लोग‘गुमराह आदमी’ वाली थ्योरी का सहारा लेकर किसानों को ‘ग़लत’ या ‘गुमराह’ घोषित कर सारे आन्दोलन को विपक्ष द्वारा प्रायोजित गुमराह लोगों का ग़ैर–ज़रूरी आन्दोलन कह कर अपना पल्ला झाड़ सकते हैं। वैसे भी सरकार के कई मंत्री ‘गुमराह जनता’ वाले स्पष्टीकरण के साथ लोगों के बीच जाना आरम्भ कर चुके हैं। किन्तु, जन आन्दोलनों प्रति इस प्रकार की प्रतिक्रिया, किसी भी लोकतान्त्रिक देश की सरकार की नहीं हो सकती। यह मानना कि भारत का नेतृत्व कुछ लोगों के द्वारा किया जा रहा है। इन्हीं को सच्चे मार्ग का पता है, और यह कि हम सब केवल भेड़ें हैं, जिनका काम इन लोगों के आदेश को बिना कुछ कहे सुने मान लेना है। भारत के उस लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों और मूल्यों के ख़िलाफ़ है जो क़ानून बनाते समय ‘शांतिपूर्ण विरोध’ और ‘सार्वजनिक भागीदारी’ को बहुत अधिक महत्व देता है। इस क्रम में एक दिलचस्प बयान नीति–आयोग प्रमुख – अमिताभ कांत का है जिन्होंने कहा है कि ‘बहुत अधिक लोकतंत्र’ भारत में सुधार के लिये क़ानून बनाने की प्रक्रिया को कठिन बनाता है। सरकार को यह महसूस करना चाहिए कि भारत में क़ानून बनाना कठिन है, क्योंकि इसमें जनता की भागीदारी की आवश्यकता है। अगर क़ानून बनाने के क्रम में जनता की भागीदारी सुनिश्चित नहीं की जाएगी तो उसके सामने शांतिपूर्ण विरोध ही अंतिम रास्ता होगा। क़ानून बनाने के क्रम में सरकार के सामने पहला विकल्प– निर्णय लेने की प्रक्रिया में हितधारकों को शामिल करना है। अगर सरकार क़ानून निर्माण के दौरान इस विकल्प का इस्तेमाल नहीं करेगी तो जनता के सामने उक्त क़ानून के ख़िलाफ़ शांतिपूर्ण विरोध के अलावा कोई अन्य रास्ता नहीं बचता। ऐसे में अगर कोई किसानों, सैनिकों, जनता के प्रतिनिधियों और आम जनता के आन्दोलनों को सिर्फ़ गुमराह लोगों का आन्दोलन कहकर नज़रअंदाज़ कर रहा है तो वह न सिर्फ़ लोकतंत्र की जड़ों को कमज़ोर कर रही है बल्कि सभी भारतीयों की बुद्धिमत्ता का अपमान भी कर रही है।