थियेटर रूह से मुलाकात कराता है, ना-समझ इसे बेचारा समझ बैठे..
रणघोष खास. प्रदीप नारायण
थियेटर को समझना- जानना और पहचाना है तो अपने आप से मुलाकात करिए। यह रूह की गोद में बैठा अहसास है जो हंसना, रोना, प्यार करना, बिलखना सबकुछ तो सिखा जाता है। यदि आप ख़ुश हैं तो भी आपके साथ है … आप दुखी हैं तो भी आपके साथ है। यह गुदगुदाता हैं अपनी आवाज़ से प्रेम करना सिखाता हैं … थपथपाता है ताकि आप नींद की आगोश में आ जाएं। आज के दौर में इसे समझे तो यह उस मां की तरह है जो तमाम परस्थितियों में अपनी संतानों को पाल पोसकर, समझदार बनाती है लेकिन इन्हीं संतानों के पास मां के लिए समय नहीं होता। वे पद- पैसो और पॉवर की नशे में मां के पास से गुजर जाते हैं। वे भूल जाते हैं कि जब वे उम्र में पहुंचेंगे तो यहीं मां रूह बनकर उस पर हंस रही होगी। थियेटर हर इंसान की जिंदगी में उस महकती खुशबू की तरह है जिसे हाथ से छू के इसे रिश्तों का इल्ज़ाम नहीं दे सकते हैं।, सिर्फ अहसाह है ये रूह से महसूस करो, थियेटर को थियेटर ही रहने दो कोई नाम न दो। जिसने अपनी जिंदगी में थियेटर को महसूस कर लिया यकीन मानिए जीवन के जितने रस चाहिए सब मिलेंगे। बस चले आइए थियेटर की बगिया में।