रणघोष खास. प्रदीप नारायण
खेती से जुड़े तीन बिलों के खिलाफ सड़कों पर आंदोलन कर रहे किसानों के चेहरों को गौर से देखिए। एकदम देहाती। जैसे अंदर से वैसे बाहर। कोई अंतर नहीं। हमारे देश की विडम्बना यह है कि कोई भी अपने को देहाती कहलाना पसन्द नहीं करता। सब अपने को शहरी, पढ़ा लिखा, अधिकारी, बाबू, जमींदार या शहरी कहलाने में 56 इंच का सीना चौड़ा कर गर्व महसूस करते हैं।किसान आन्दोलन की पृष्टभूमि की असली मूल जड़ को समझने के लिए पहले हमें देहाती बनना पड़ेगा। जहां पर चारों ओर जंगल, बीच मे बैलगाड़ियों के चलने से बनी गढारें हुआ करती थी। देहात के प्राकृतिक माहौल में सुगंधितमन्द–मन्द वायु बहतीथी। प्रकृति स्वयं इन देहाती स्थान पर अपना सौन्दर्य सजाती रहती थी। मिट्टी की सौंधी हवा, नदी की कल–कल ध्वनि का कर्णप्रिय संगीत, बेर, करोंदे, खजूर, खिन्नी और अमियों की मीठी सुगन्ध। कच्ची हरी इमली का खट्टा चिरखा स्वाद, अधपके कच्चे आंवलों को दांतोंसे चबाकर, हथेलियों की चुल्लू में रेत के बने गड़्ड़े से ऊकड़ू बैठकर पानी पीना, आंवले की खटास में से पानी के साथ मिठास निकाल कर, जीभ चाट–चाटकर स्वाद गटकना। पनधट की नारियां,मन्दिरों की घंटियां, लहराते खिलखिलाते सरसों- गेहूं के खेत। यहां के लोग भोले , सहज, धर्म भीरू और अनुशासन प्रिय होते थे। हकीकत में ‘देहात‘ में तो राष्ट्र के देह की आत्मा का निवास होता है। देहाती असली किसानों को कहते हैं। इन्हीं देहातियों के कारण भारतीय संस्कृति सभ्यता सैकड़ों साल गुलामी के बाद भी आज तक सुरक्षित रही। यही वह देहात और देहाती लोग थे, जो अंग्रेजों की गोलियों को अपने सीने पर खाकर, एक के मरने के बाद दूसरा आगे आकर स्वेच्छा से गोलियां खाने को तैयार रहता था। पर आज पक्ष ओर विपक्ष में खुद को किसान बताकर राजनीति करने वाले नेता ‘देश की विकृत राजनीति के रंग में इतना रंग गए हैं कि उन्हें पहचान पाना मुश्किल हो गया है कि वे सचमुच में कॉरपोरेट वाले नेता है या हमारे देहाती वाले..। इसलिए किसान आंदोलन को देहाती बनकर ही शांत किया जा सकता है।