कड़ाके की ठंड में हम अपने घरों में रजाइयों में दुबके हैं और देश के अन्नदाता किसान खुले आसमान में सड़कों पर रात बिताएं? क्या हमने ऐसे लोकतंत्र की कल्पना की थी जिसमें अभिव्यक्ति की आजादी को कुचला जाए? हुक्मरानों तक अपने हकों की आवाज उठाने ही तो जा रहे थे देश की राजधानी दिल्ली तक। दिल्ली कूच न कर सकें इसलिए सड़कों को बड़े पत्थ्ररों से बंद किया गया, ठंडा पानी और डंडे बरसाए गए। देश में ब्रिटिश शासन से आजादी लाने वाले असहयोग व अंहिसक आंदोलन ही तो थे। आजादी के 70 साल बाद अभी तक आंदोलनकारी सड़कें जाम करते हैं और पुलिस उन्हें खोलती है। आजाद भारत में अब सड़कों को भारी पत्थरों व कंटीले तारों से पुलिस जाम कर रही हैं और अपने हकों की लड़ाई के लिए आगे बढ़ते आंदोलकारी किसान उन्हें खोल रहे हैं। ब्रिटिश काल जैसी पुलिस से किसानों को दो चार होना पड़ रहा है। किसानों के दिल्ली कूच की नौबत ही न आती यदि केंद्र सरकार किसानों से सार्थक बातचीत के लिए समय रहते कदम उठाती। सबके मन की बात करने वाले माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी एक बार किसानों के मन की बात भी सुन लेते। किसानों के दिल्ली कूच से पहले ही प्रधानमंत्री केंद्र के कृषि बिलों को लेकर किसानों के संदेह और उनके समाधान के लिए अपने केंद्रीय मंत्रियों की टीम पंजाब और हरियाणा के किसानों से बातचीत के लिए भेजते।
अभी तक दिल्ली में किसान संगठनों के साथ केंद्रीय कृषि मंत्री और अफसरों की दो दौर की बातचीत हुई वह बगैर समाधान के बेनतीजा रही। किसान इतना ही चाहते हैं कि तीन नए कृषि कानून के साथ केंद्र सरकार उन्हें गेहूं,धान समेत 23 फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य(एमएसपी) की लिखित गारंटी के लिए केंद्र सरकार एक और कानून संसद में पारित करे या फिर अपने तीनों कानून निरस्त करें। अक्टूबर व नवम्बर में केंद्र से दो दौर की बातचीत बेनतीजा होती देख किसानों ने महीना पहले ही दिल्ली कूच का आह्रवान किया था। इस बीच ऐसी कोई कोशिशें सामने नहीं आई जिससे किसानों के साथ ठकराव की स्थिति को दूर करने के केंद्र सरकार कोई कारगर कदम उठाती। उल्टा दो महीनें तक पंजाब में ठप रेलवे सेवाओं की बहाली इस शर्त पर नहीं की गई कि माल व यात्री गाड़ियों एक साथ चलेंगी जबकि किसान संगठन पहले माल गाड़ियांे की बहाली की मांग करते रहे। रेलवे की जिद्द के चलते इन दो महीनों में कोयले की आपूर्ति ठप रहने से बंद हुए थर्मल प्लांट और उद्योगों को माल की आवाजाही रुकने से 40,000 करोड़ रुपए से अधिक के नुकसान का खामियाजा पंजाब को उठाना पड़ा। गेहूं बुआई के समय यूरिया व डीएपी की किल्लत से किसान अभी तक परेशान हैं।
किसान और किसानी का मसला सियासी पार्टियों से ऊपर उठकर देखने का है। किसान किसी पार्टी के विरोधी नही है। देश की जीडीपी में 17 फीसदी योगदान देने वाली 60 फीसदी आबादी खेती से जुड़ी है। इसलिए सत्तारूढ़ दल और विपक्ष दलों को बैठकर एक राय से किसानों की शंकाओं और समस्याओं का पक्का समाधान निकालना होगा। ऐसा समाधान जिससे भविष्य में किसानों को कड़ाके की ठंड मे सड़को पर रातें न गुजारनी पड़े। सियासत और किसानी के बीच अहम का टकराव न हो। सर्द रातों में सड़कों पर रातें गुजारते अन्नदाता के मन की बात सुनिए और समाधान निकालिए।