रणघोष खास. प्रदीप नारायण
तीन बिलों के खिलाफ दिल्ली की सीमाओं पर डेरा डाले किसानों के बीच से एक ओर कलंकित करने वाली खबर आईं। एक ओर किसान ने खुद को खत्म कर लिया। आंदोलन के दरम्यान अलग अलग कारणों से मरने वाले किसानों की संख्या 50 पार हो चुकी है। ये हादसे नहीं देश पर लगा धब्बा है जो कभी नहीं मिट सकता। दरअसल आज हमारे देश की राजनीति का धर्म और मकसद सिर्फ हंगामा खड़ा करना है। देश का किसान आत्महत्या कर रहा है। लेकिन बिडंबना देखिए कि राजनीति के लिए यह वसंत और वैशाखी का मौसम है। किसान का खेती से रिश्ता कमजोर होता जा रहा है, फसल चौपट हो रही है लेकिन राजनीति की खेती लहलहा रही है। किसान दमतोड़ रहा है, लेकिन सियासतदानों की जमीन को खैरात में खाद-पानी उपलब्ध हो रहा है। वाह रे अन्नदाता, तू कितना कारसाज है! तेरी दयालुता कितनी महान है। तेरी मौत हो पर कोई आंसू बहाने वाला नहीं है। लेकिन तू इस दुनिया से अलविदा होने के बाद भी राजनेताओं के लिए रोजी, रोजगार और रोटी उपलब्ध करा रहा है। उफ! भारतीय राजनीति के लिए यह मंथन और चिंतन का सवाल है। सत्ता खिलखिला रही है और किसान फंदे पर लटक अपने प्राणों की आहुति कर रहा है। 70 फीसदी किसानों वाले देश के लिए इससे बड़ी क्षोभ और बिडंबना की बात और क्या हो सकती है। यह राजनीति करने वाले दलों की नपुंसकता का कैसा घिनौना चेहरा है जब देश में 12,000 किसान प्रति वर्ष फसल की बार्बादी, कर्ज की अधिकता, राजस्व वसूली और बैंकों के दबाव के कारण आत्महत्या को मजबूर होते हैं। आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? किसी के पास है इसका जबाब? देश में अब तक लाखों किसान आत्महत्या कर चुके हैं, लेकिन सियासी गलियारे में इस मसले पर कभी इतनी गरमाहट नहीं देखी गई। किसान आंदोलन में किसानोंकी मौत् इसलिए खास बन रही है, क्योंकि उसने जहां मौत को गले लगाया, वह दिल्ली की सत्ता के बेहद करीब है, संसद से बिल्कुल नजदीक है। उसकी मौत सरकार के दरवाजे पर हुई है। इसलिए आजादी के बाद से आज तक किसानों के नाम पर राजनीति करने वालों के मुंह पर कालिख पुत गई है। सत्ता के लिए राजनीति करने वालों का मुंह काला हो गया है, क्योंकि वह दिल्ली है। यहां आम आदमी जब बोलता है तो उसकी आवाज दूर तक जाती है। यहां के मीडिया को कवरेज करने में भी काफी सुविधा मिल जाती है। इसलिए ऐसी मौतें देशव्यापी हो जाती है। अगर यही मौत दिल्ली के बजाय विदर्भ, बुंदेलखंड या राजस्थान या आंध्र प्रदेश के गांवों में होती तो इतना हंगामा न बरपता। अंत्येष्टि में काफी संख्या में सफेद कुर्ता पायजामें वाले न पहुंचते। इन घटनाओं को रोकना चाहते हैं तो हमें दलीय सीमा से बाहर आना होगा। सत्ता हो या प्रतिपक्ष सबको अपनी नैतिक जिम्म्मेदारी तय करनी होगी। ‘मेरा कुर्ता सफेद, तेरे पर दाग’ की मानसिकता को त्यागना होगा। देश की रणनीतिकारों के लिए यह चिंतन और चिंता का सवाल है। हम भारत निर्माण और ‘मेक इन इंडिया’ का खोखला दंभ भरकर भारत का विकास नहीं कर सकते। देश की 70 फीसदी आबादी कृषि पर निर्भर है। हमारे पास ऐसा कोई विकल्प नहीं जिससे हम कृषि और उसके उत्पादन को प्राकृतिक आपदा से बचा पाएं। भारत की अर्थ व्यवस्था में कृषि और उसके उत्पादनों का बड़ा योगदान है। खाद्यान्न के मामले में अगर आज देश आत्मनिर्भर है तो यह अन्नदाताओं की कृपा से। उफ! लेकिन यह दर्दनाक तस्वीर सामने आकर हमें चुल्लु भर पानी में डुब मरने के लिए मजबूर कर देती है।