सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में बैठे जज भी इंसान ही हैं। उनके भी नाते, रिश्तेदार, दोस्त, यार हैं। वे भी अपनों की मौत से वैसे ही दुख पाते हैं जैसे दूसरे। इसलिए लगभग आधा दर्जन हाई कोर्ट एकाएक क्रांतिकारी नज़र आने लगे हैं। कोई इसे नरसंहार बता रहा है तो कोई कुछ, और सुप्रीम कोर्ट भी इस सब पर हाईकोर्ट को स्नब करता नहीं दिख रहा।
‘ऑक्सीजन’ पर सुप्रीम कोर्ट ने एक फ़ैसला लिया, दिया नहीं! फ़ैसला यह है कि मोदी की केंद्रीय सरकार जिसने ऑक्सीजन के देशव्यापी वितरण के सारे हक़ अपने आपके लिए कर लिये थे, वह अपने काम को संतोषजनक ढंग से नहीं कर सकी, इसलिए इस काम को सुप्रीम कोर्ट ने मोदी की सरकार की जगह अपने हाथ में ले लिया है।इसके लिये कोर्ट ने एक टास्क फ़ोर्स बना दी है जो आने वाले दिनों में इस काम को अपने हाथ में ले लेगी।सुप्रीम कोर्ट इसके पहले पर्यावरण के मामले में केंद्रीय सरकार के कार्यकलापों को असंतोषजनक पाकर ‘भूरेलाल कमेटी’ गठित कर इससे मिलता-जुलता फ़ैसला कर चुका है। यह पिछली सदी के आख़िर की बात है।इस फ़ैसले ने मोदीजी की सरकार की कार्यप्रणाली पर एक बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह खड़ा किया है। यह सरकार के अक्षम होने, पक्षपाती होने और लापरवाह होने के आरोपों की एक हद तक पुष्टि करता है।सुप्रीम कोर्ट से मोदी सरकार के एक-दूसरे फ़ैसले पर भी जल्द ही कड़ा निर्णय आ सकता है। वह वैक्सीन के अलग-अलग दामों के बारे में होगा। मोदी सरकार ने वैक्सीन ख़रीदने का दाम ख़ुद के लिए 150 रुपये, राज्यों के लिए 400 रुपये (जिसे वैक्सीन निर्माता ने घटाकर 300 किया है) और प्राइवेट अस्पतालों के लिए 600 रुपये तय किया है। सुप्रीम कोर्ट ने मोदी सरकार से पूछा है कि वैक्सीन के यह तीन तरह के दाम क्यों तय किए गए? इससे पहले कब किसी वैक्सीन के लिए किसी सरकार ने ऐसा किया? केंद्र सरकार एक साथ पूरे देश के लिए एक दाम पर वैक्सीन क्यों नहीं ख़रीद रही है? सरकार को प्राइवेट वैक्सीन निर्माता के लाभ की चिंता क्यों है?
अभी तक सुप्रीम कोर्ट और केंद्रीय सरकार के बीच असाधारण सौहार्दपूर्ण वातावरण बना हुआ था। रिटायर्ड चीफ़ जस्टिस सीधे राज्यसभा पहुँच रहे थे, दूसरे जस्टिस भी गवर्नर इत्यादि के रूप में सुशोभित हो रहे थे। केंद्र सरकार से कड़े सवालों का होना लुप्तप्राय था, बल्कि हाई कोर्ट से आये फ़ैसलों तक पर सुप्रीम कोर्ट में केंद्रीय सरकार लगातार राहत पा रही थी। बोबडे साहब के चीफ़ जस्टिस पद से रिटायर होते ही सुप्रीम कोर्ट ‘नॉर्मल’ हुआ लगता है।ख़ैर, बहुत खामखयाली पालना ठीक न होगा। दरअसल, महामारी के प्रबंधन में मोदी सरकार की लापरवाहियों की वजह से श्मशानों में लाशों के अंबार लग गए हैं। महामारी ने सबसे ज़्यादा वातानुकूलित क्लास की ख़बर ली है। अख़बारों के शोक-संदेश के विज्ञापन छापने वाले पन्नों की संख्या बढ़ गई है और मोदी सरकार का प्रचंड समर्थन करने वाला मध्यवर्ग ऑक्सीजन बेड, ऑक्सीजन सिलेंडर, ऑक्सीजन कंसेंट्रेटर, रेमडेसिविर, फ़्लू की दवाओं और एंबुलेंस आदि के लिये सड़कों पर मारा मारा फिर रहा है।सबको किसी न किसी नज़दीकी या खुद की क़ुर्बानी देनी पड़ रही है, सबको हैसियत समझ आ गई है। जज, वकील, पत्रकार, इंजीनियर, डॉक्टर, व्यापारी, दलाल, विधायक, सांसद आदि अनादि सब आसन्न मौत से बचते/भागते/छिपते/भोगते फिर रहे हैं। जान की क़ीमत देकर लोगों को समझ आ रहा है कि मंदिर या किसी नेता की मूरत से पहले अस्पताल और अस्पताल में दवा और डॉक्टर होना कितना ज़रूरी है?सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में बैठे जज भी इंसान ही हैं। उनके भी नाते, रिश्तेदार, दोस्त, यार हैं। वे भी अपनों की मौत से वैसे ही दुख पाते हैं जैसे दूसरे।
इसलिए लगभग आधा दर्जन हाई कोर्ट एकाएक क्रांतिकारी नज़र आने लगे हैं। कोई इसे नरसंहार बता रहा है तो कोई कुछ, और सुप्रीम कोर्ट भी इस सब पर हाईकोर्ट को स्नब करता नहीं दिख रहा। सबकी जान पर बन आई है! सब समझ रहे हैं कि ग़लती किसकी है, गर्दन किसी की भी कलम हो सकती है!