हम एक ऐसे अनूठे वक्त में रह रहे हैं, जहां तथ्य और कथ्य के बीच के तंतु नदारद हैं। मीडिया में समाचार और कहानी का फर्क गड्ड-मड्ड हो गया है। वह भेड़चाल का हिस्सा बन गया है। इसके कुछ स्वघोषित प्रवक्ताओं ने ‘सच’ के नाम पर खबर, विचार और अवधारणाओं के आवश्यक विभेद को भेद दिया है। टीवी स्क्रीन पर चीखते चेहरे अपने गढे़ हुए प्रतिमानों को बेहद आक्रामकता के साथ पेश करते हैं, ताकि उनका कहा हुआ आम आदमी के मानस पर छप जाए। यही वजह है कि पत्रकारिता के खरे सिक्कों को इस समय अपनी ही टकसाल के खोटे सिक्कों से जूझना पड़ रहा है।
कोई हैरत नहीं कि पश्चिमी समाज विज्ञानी इस कुम्हलाए कालखंड को ‘उत्तर सत्य युग’ का दर्जा देते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि अर्णब गोस्वामी और उनके जैसे कुछ अन्य लोगों ने भारतीय पत्रकारिता में एक खास किस्म का प्रयोग किया। यह स्थापित मानदंडों के न केवल प्रतिकूल था, बल्कि बहुतों को आहत करने वाला भी था। उनकी पीढ़ी के कुछ अन्य लोगों ने भी सीमाएं लांघीं, परंतु उन्होंने सार्वजनिक संकोच के दायरे को कभी चुनौती नहीं दी। इसके विपरीत अर्णब सीना तानकर कहते थे कि मैं जो कह रहा हूं, जो कर रहा हूं, वह सही है।
अपनी बात को जायज ठहराने के लिए वह यह भी फरमाते थे कि मेरे चैनल की टीआरपी इसीलिए सबसे आगे है, क्योंकि लोग उसे पसंद करते हैं। यही वजह है कि मुंबई पुलिस ने जब टीआरपी में हेराफेरी के आरोप में कुछ लोगों को गिरफ्तार किया, तब उन्होंने चीख-चीखकर कहा कि यह एक सियासी षड्यंत्र है। कुछ मीडिया घरानों के प्रधान संपादकों/संचालकों के नाम ले-लेकर उन्होंने चुनौतियों की मिसाइलें दागीं। वह यहीं नहीं रुके, उन्होंने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और मुंबई के पुलिस कमिश्नर का नाम लेकर आरोप-वर्षा कर दी। पत्रकारिता में इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था, पर वह बेपरवाह बने रहे। उनकी इसी अदा ने भारतीय पत्रकारिता को इस मोड़ पर ला खड़ा किया है, जहां हर राह चलता हम पर अंगुली उठा रहा है।
कोई आश्चर्य नहीं कि उनकी गिरफ्तारी ने समूचे मीडिया जगत को वैचारिक समुद्र-मंथन की राह पर धकेल दिया है। कुछ लोग इसे उद्धव ठाकरे सरकार की प्रतिशोधात्मक कार्रवाई करार दे रहे हैं, तो कुछ इसे आपराधिक मामला बताते हुए अभिव्यक्ति के सरोकारों से इसका नाता जोड़ने के खिलाफ हैं। स्वाभाविक रूप से शिवसेना के वरिष्ठ नेता संजय राउत ने इससे इनकार किया है, पर हंगामा जारी है। अर्णब के समर्थन में जो लोग आज महाराष्ट्र में अघोषित आपातकाल के आरोप लगा रहे हैं, वे देश के अन्य राज्यों में पत्रकारों के ऊपर हो रहे हमलों पर चुप रहे हैं।
यह सवाल भी बनता है। यह एक तल्ख हकीकत है कि सत्ता-सदनों में बैठने वाले लोग मीडिया के प्रति असहिष्णु होते जा रहे हैं। सरकार किसी भी दल की हो, पर सच बोलना-लिखना आसान नहीं रह बचा है। पिछले वर्षों में ऐसे कई मामले सामने आए, पर उनमें अधिकतर आंचलिक पत्रकार थे। उन पर संगीन धाराएं थोपने वालों ने जो किया, उससे कहीं अधिक त्रासद मीडिया संगठनों की चुप्पी है। क्या न्याय और अन्याय पर सिर्फ कुछ सेलिब्रिटी संपादकों का हक है?
बताने की जरूरत नहीं कि हम विभाजित वक्त में जी रहे हैं। समूची दुनिया में भरोसे की कमी एक विभीषिका के तौर पर उभर रही है। हम अक्सर अपने देश के राष्ट्रीय अथवा प्रादेशिक हुक्मरानों को दोष देकर चुप बैठ जाते हैं, पर यह खुद को अर्द्धसत्य की मरीचिका में धकेलने जैसा है। अगर आपको मेरी बात पर विश्वास न हो, तो कृपया एक बार अमेरिका से आने वाली खबरों और चित्रों पर गौर फरमा लीजिए। एक गिरफ्तारी के बहाने आरंभ हुए वैचारिक समुद्र-मंथन का स्वागत भी करना चाहिए।
अगर पत्रकारों को अपने काम में राज्य और उसकी मशीनरी का बेजा दखल रोकना है, तो उन्हें स्वयं अपनी लक्ष्मण रेखा की तारबंदी करनी होगी। यही नहीं, उन्हें इसकी निगहबानी भी खुद ही करनी होगी, क्योंकि पत्रकारीय मूल्यों पर अंदर और बाहर, दोनों तरफ से हमला जारी है। इसे रोकने की जिम्मेदारी भी हम पर है। मीडिया के लिए यह आत्ममंथन का वक्त है।