रणघोष खास. देशभर से
कहते हैं, इतिहास अपने को दोहराता है। आज से करीब 32 साल पहले 1988 में 25 अक्टूबर से नवंबर की शुरुआत तक लगभग हफ्ते भर दिल्ली में किसानों की ऐसी ही घेरेबंदी देखी गई थी। तब भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) के करिश्माई नेता महेंद्र सिंह टिकैत की अगुआई में लगभग पांच लाख किसानों ने 35 मांगों की भारी-भरकम फेहरिस्त के साथ बोट क्लब पर लगभग कब्जा जमा लिया था, जिससे कुछ गज की दूरी पर सत्ता-केंद्र नॉर्थ और साउथ ब्लॉक के साथ संसद भवन है। तब संसद का शीतकालीन सत्र शुरू होने ही वाला था। खासकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आए किसानों की बड़ी मांगों में गन्ने की ज्यादा कीमत, बिजली और पानी के शुल्क से मुक्ति जैसे अहम मुद्दे थे। भारतीय किसान यूनियन के नेतृत्व में यह गोलबंदी इतनी बड़ी थी कि विजय चौक से लेकर इंडिया गेट तक का पूरा लंबा-चौड़ा इलाका किसानों से पटा पड़ा था।
भारतीय किसान यूनियन के उस आंदोलन पर गहरा शोध करने वाली प्रोफेसर जोया हसन कहती हैं, “टिकैत के नेतृत्व में किसान आंदोलन दिवंगत राजीव गांधी की अगुआई वाली कांग्रेस सरकार के खिलाफ अहम ताकत का प्रदर्शन था। तब कांग्रेस भारी बहुमत के साथ सत्ता पर काबिज थी। हालांकि, प्रो. हसन कहती हैं, “फिर भी भाकियू तब मोटे तौर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक सीमित एक क्षेत्रीय ताकत ही थी। उसके विपरीत मौजूदा किसान आंदोलन बड़े पैमाने पर पूरे देश के फलक पर फैला है और उसकी मांगें भी अधिक महत्वाकांक्षी हैं।”
फिर, भाकियू और मौजूदा किसान आंदोलन की सामाजिक संरचना भी काफी अलग है। प्रो. हसन बताती हैं, “भाकियू का आंदोलन मुख्य रूप से मुजफ्फरनगर, मेरठ और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट किसानों की गोलबंदी थी, अलबत्ता भाकियू की पैठ दूसरी जातियों के किसानों में भी मजबूत थी। इसके विपरीत मौजूदा आंदोलन देश के विभिन्न राज्यों, विविध जातियों और विभिन्न तबके के किसानों का ढीलाढाला इंद्रधनुषी शमियाने जैसा है, जिसमें कई सांस्कृतिक रंग एक साथ खिल रहे हैं।”
इसी बहु-वर्गीय या विभिन्न तबके वाली रूपरेखा के कारण मौजूदा किसान आंदोलन में प्रतिकूल विचारधाराओं वाले किसान-समूहों की शिरकत है। कुछ, जैसे हनन मोल्ला माकपा से जुड़े हैं, तो मध्य प्रदेश और मध्य भारत के दूसरे राज्यों से बड़ा जत्था अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति (एआइकेएससीसी) से संबंधित है, जबकि पंजाब के कुछ समूह अतीत में भाकपा-माले से जुड़े रहे हैं। इसके अलावा महेंद्र सिंह टिकैत के बेटे राकेश टिकैत सहित भाकियू के लगभग 40 विभिन्न गुटों का बड़ा-सा जमावड़ा भी है।
राष्ट्रीय किसान महासंघ के संयोजक बिनोद आनंद ने बताया कि 1980 के दशक के आखिरी वर्षों में भाकियू के पास सिर्फ प्रिंट मीडिया, दूरदर्शन और बीबीसी ही माध्यम था। आज के किसान आंदोलन के लिए 24 घंटे के न्यूज चैनलों और हजारों सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का सहारा है। आनंद कहते हैं, “सोशल मीडिया में चल रहे कुछ लोकप्रिय हैशटैग पर ही गौर करें किसान दिल्ली चलो, ट्रैक्टर टू ट्वीटर, किसान के साथ खड़े हों, अन्नदाता का अन्न के लिए संघर्ष, किसान-मजदूर एकता जिंदाबाद, किसान एकता जिंदाबाद, किसानों के लिए आवाज उठाइए, अडानी-अंबानी का बॉयकाट करो। इतने व्यापक और विभिन्न भाषाओं के लिए प्रेस ब्रीफिंग तैयार करना भी बड़ा चुनौती भरा काम है।”