बीते कुछ दिनों से हरियाणा में एक के बाद एक हो रही महापंचायतें धर्म-जाति की आवाजों से गूंज रहीं हैं. देश में एक दूसरे के ख़िलाफ़ भाषाई और शारीरिक हिंसा रोज़ हो रही है, लेकिन नफ़रत का यूं खुला आयोजन पूर्वक प्रचार क्या बिना मक़सद किया जा रहा है? क्या जब बड़ी हिंसा होगी, हत्याएं होंगी, तभी हम जागेंगे?
रणघोष खास. एक भारतीय की कलम से
संसद में प्रधानमंत्री ने कहा, ‘अध्यक्ष महोदय, अगर कोई सोचता है कि इस देश में नस्लवाद और नफ़रत इस देश में नहीं है तो मैं पूछना चाहूंगा कि आख़िर अस्पताल में उस बच्चे को हम इस तरह की हिंसा को कैसे समझाएं?’‘हम किसी तरह की नफ़रत को जड़ नहीं जमाने दे सकते क्योंकि उसके नतीजे बहुत ही गंभीर हो सकते हैं,’ घटिया चुटकुले, मज़ाक़ से लेकर भ्रामक और झूठे ‘तथ्य’ जब लगातार किसी समुदाय को लक्ष्य करके प्रसारित किए जाएं, जब हमारे बैठक खाने में हमारे रिश्तेदार और मित्र बेझिझक उन्हें बोलें और सभ्यतावश उसे बर्दाश्त कर लिया जाए, या हंसकर उसे उड़ा दिया जाए तो उस घृणा प्रचार को बल मिलता है। घृणा प्रचार का नतीजा हमने कई बार देखा है। घृणा का प्रचार कभी भी निष्फल नहीं होता. वह ज़हर असर करता है। इस लेख में उन गालियों और नारों को दोहराना ज़रूरी नहीं, जो इन सभाओं में लगाए जा रहे हैं. किसी का क़त्ल करने का इरादा ज़ाहिर करते हुए भाषण दिए जा रहे हैं. इन सभाओं में सैकड़ों लोग शामिल हो रहे हैं. वे हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश से आकर इनमें शामिल हो रहे हैं। कुछ भले लोगों का सोचना यह है कि बुरी बात की चर्चा,आलोचना के तौर पर ही सही जितनी कम हो, उसका असर उतना ही कम होता है.। घृणा का प्रचार अपने आप में हिंसा है. गाली-गलौज, हत्या की धमकी क़ानूनन भी अपराध है. अगर यह खुलेआम की जा सकती है, अगर बिना किसी दंड के भय के किसी को अपमानित किया जा सकता है तो खून बहे न बहे, यह हिंसा है। आप नहीं कह सकते कि ये सभाएं हत्यारे नहीं तैयार कर रहीं। हिंसा एक वास्तविकता है. यह भ्रम नहीं. क्या इस पर इसलिए बात न करें कि यह असली मुद्दों से ध्यान भटकाने की चाल भर है? यह धारावाहिक हिंसा है जो रोज़ाना होती है. लेकिन अभी जो नफ़रत का खुला आयोजनपूर्वक प्रचार किया जा रहा है शायद एक अलग तैयारी है. किसी बड़ी हिंसा की. क्या यह बिना मक़सद किया जा रहा है? क्या जब बड़ी हिंसा होगी और फिर बड़ी संख्या में हत्याएं होंगी, तभी हम जागेंगे? या अभी ही वक्त है जब उसकी तैयारी हो रही है, उसे रोकने की। अगर घृणा का प्रचार हो सकता है तो बंधुत्व का क्यों नहीं? और क्यों यह राजनीतिक दलों का काम नहीं. क्यों अपने मतदाताओं की सुरक्षा और सम्मान उनकी चिंता का विषय नहीं? उनका दायित्व नहीं? इस हिंसा पर बात नहीं करने से यह ग़ायब नहीं हो जाएगी. खून बहने तक खून बहाने के प्रचार पर बात न करना खुद को धोखा देना है, आत्मघात है.