सोचें, क्या किसी भी सभ्य समाज में किसी लोकतांत्रिक आंदोलन के मामले में ऐसा सोचा जा सकता है? लेकिन अफसोस की बात है कि भारत में पिछले कुछ सालों से हर आंदोलन को इसी नजरिए से देखा जा रहा है, जैसे सरकार की नीति पर सवाल उठाने वाला हर आंदोलन देशद्रोह है। इसी अंदाज में संशोधित नागरिकता कानून यानी सीएए विरोधी आंदोलन को ब्रांड किया गया था। पर किसानों के आंदोलन को उस तरह से ब्रांड करना मुश्किल हो रहा है। किसानों को खलनायक ठहराने में भाजपा के नेता कामयाब नहीं हो पा रहे हैं। किसानों को विलेन बनाना इसलिए मुश्किल हो रहा है वे किसान हैं और उनका कोई गुप्त एजेंडा नहीं है। इस आंदोलन को ना सिख किसानों का मुद्दा बनने दिया और न पंजाब के किसानों का। यह जितना सिखों का है उतना ही गैर सिखों का है, जितना पंजाब का है, उतना ही हरियाणा और उत्तर प्रदेश, राजस्थान के किसानों का है। पंजाबी सिंगर और पंजाबी फिल्मों के हीरो–हीरोइन किसानों के समर्थन में खुल कर उतरे तो हरियाणावी सिंगर और अभिनेता भी खुल कर उनके समर्थन में आए। मुश्किल इसलिए भी बढ़ गई है अंतरराष्ट्रीय आईकॉन स्तर के खिलाड़ियों ने पूरी ताकत से किसानों का समर्थन किया। पंजाब और हरियाणा के ओलंपिक पदक जीतने वाले और बड़े पुरस्कार हासिल करने वाले खिलाड़ी किसानों के समर्थन में आए। राष्ट्रीय मीडिया भले किसानों को विलेन बनाने के प्रयास में लगा रहा पर क्षेत्रीय मीडिया पूरी तरह से किसानों के साथ खड़ा रहा। पंजाब और हरियाणा दोनों जगह के किसान चूंकि आर्थिक रूप से सक्षम हैं और उन्हें पूरे समुदाय की मदद हासिल है इसलिए वे किसी चीज के लिए मोहताज नहीं हैं। सो, उन्हें तंबू गाड़ कर ठंड में हाईवे को घर बनाने या लंगर लगाने के लिए किसी की मदद की जरूरत नहीं पड़ी। वे खुद यह काम करते रहे और रियल टाइम में हर किस्म के प्रोपेगेंडा का जवाब देते रहे। एक तरफ से पंजाब के सिख किसानों ने कमान संभाली तो दूसरी ओर से हरियाणा के योगेंद्र यादव और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के राकेश टिकैत के संगठन भी किसानों के साथ डटे रहे। इसका नतीजा यह हुआ कि इसे एक रंग में रंगने का प्रयास नाकाम हो गया। गड़बड़ी करने वालों को किसान खुद ही पकड़ कर पुलिस के हवाले करने लगे। सो, लग नहीं रहा है कि इस आंदोलन के किसानों को विलेन बनाया जा सकेगा।