फूट डालो राज करो की अंग्रेजों की कूटनीति का जितना भरपूर फायदा हमारे देश की राजनीतिक पार्टी के नेता चुनाव में उठाते हैं उतना गुलाम भारत में गोरे शासक भी नहीं उठा पाए थे। बिहार में हुए चुनाव के आए नतीजों से आसानी से इसे समझा जा सकता है जिसका असर आने वाले समय में देश की राजनीति पर पूरी तरह नजर आएगा। बिहार के चुनावी परिणाम भविष्य के बारे में बुरे संकेत दे रहे हैं। सत्तारूढ़ गठबंधन में जदयू के कमजोर होने से भाजपा को अपने हिंदुत्व एजेंडे को खुलकर खेलने का मौका मिल गया है। इस चुनाव में तीन चिंताजनक रुझान दिखे- भाजपा का स्पष्ट मुद्दे के साथ उभार; ओवैसी की पार्टी एआइएमआइएम का उभार जिसने खुलकर इस्लामिक भावनाओं को हवा दी और मुख्य रूप से महागठबंधन की मध्य-वाम राजनीति को अपने निशाने पर रखा; और जाति-धर्म आधारित बसपा, रालोसपा, एआइएमआइएम के गठबंधन तथा जन अधिकार पार्टी और भीम आर्मी के एक और जाति आधारित गठबंधन के जरिये संकीर्ण गोलबंदी के प्रयास। एआइएमआइएम ने मुसलमानों को यादवों के खिलाफ भिड़ाकर राजद के मुस्लिम-यादव जोड़ी तोड़ने की कोशिश की। दलित राजनीति की पार्टियों ने दलितों को यादवों के विरुद्ध खड़ा करने की कोशिश की। इन दलों और उनके गठबंधनों ने कोसी क्षेत्र में न केवल महागठबंधन के वोट बैंक में निर्णायक सेंध लगाई बल्कि गरीब अवाम के बीच जाति और धर्म से परे की संभावनाओं को भी कमजोर किया है। एआइएमआइएम के उभार से भाजपा के मंसूबों को बल मिलेगा साथ ही बिहार के उत्तर-पूर्व क्षेत्र में मुस्लिम आबादी वाले जिलों में हिंदू-मुसलमानों के बीच ध्रुवीकरण बढ़ेगा। सत्तारूढ़ गठबंधन में भाजपा के दबदबे के कारण उसकी विभाजनकारी नीतियां राजनीति का केंद्र-बिंदु बन सकती हैं। भविष्य में नागरिकता संशोधन कानून, राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर और मुस्लिम घुसपैठिये के इर्द-गिर्द राजनीति की गोलबंदी बढ़ेगी। बिहार चुनाव में धर्म और जाति की राजनीति करने वाली ताकतों का उभार बढ़ा है, तो दूसरी ओर वाम शक्तियों का भी उभार हुआ है। बहुत कुछ इस पर निर्भर करेगा कि वाम दलों की तरह महागठबंधन के बाकी घटक, राजद और कांग्रेस चुनावी सक्रियता से आगे बिहार में प्रगति, शांति और विकास के लिए जनसंघर्षों में हिस्सेदार बनेंगे।