“देश के 22 राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों में किए गए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) के मुताबिक, पांच राज्यों की 30 फीसदी से अधिक महिलाएं अपने पति द्वारा शारीरिक एवं यौन हिंसा की शिकार हुई हैं। वहीं, सामाजिक कार्यकर्ताओं और गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) ने कोविड-19 महामारी के मद्देनजर ऐसी घटनाओं में वृद्धि की आशंका जताई है।” “मैं अपनी पत्नी को नौकरी करने देता हूं, मैं अपनी पत्नी को उसकी पसंद के कपड़े पहनने देता हूं, मैं उसे देश-दुनिया की सैर कराता हूं, अच्छे से अच्छे रेस्तरां में खाना खिलाता हूं, महंगी गाड़ी में घूमाता हूं और इन सबके होते हुए अगर मेरी पत्नी के साथ मैं मारपीट करता हूं या गलत व्यवहार करता हूं, तो ये मेरा और मेरी पत्नी के बीच का मामला है। उसे अगर मेरे मार-पीट करने की आदत से शिकायत है, तो वो मुझे छोड़ सकती है, सभी सुविधाओं का आनंद लेते हुए पुलिस में शिकायत क्यों?” “मैं हर दिन थोड़े ना मारता हूं, कभी कभी गुस्से में हाथ उठ जाता है, लेकिन मैं इसे प्यार भी तो करता हूं। इसका अच्छा बुरा भी तो मैं ही सोचता हूं। मैं इसका पति हूं, मैं जो चाहे कर सकता हूं, आप कौन होते हैं बीच में बोलने वाले” इसी तरह की ढेरों बातें सुनने को मिल जाती हैं, जब आप उन पतियों से मिलते हैं या उनके बारे में अखबार में छपी कोई खबर पढ़ते हैं, जहां मामला होता है घरेलू हिंसा का, पत्नी के साथ मारपीट का या गाली-गलौज का। ऐसा नहीं है कि हमारे देश की लड़कियां इतनी समझ नहीं रखतीं कि उनके साथ जो हो रहा है वो गलत है। वह तबका समझ में आता है जहां अशिक्षा है और बेटियां अपनी माओं को भी मार खाते देख बड़ी होती हैं। लेकिन जहां शिक्षा है, आधुनिकता है, आत्मनिर्भरता है, वहां भी इस तरह की घटनाओं का हो जाना दुखद है। तबका चाहे कोई भी हो लेकिन समझौता करने और बरदाश्त करने की नसीहतें सिर्फ औरत को ही दी जाती हैं। दरअसल हमारे समाज की संरचना ही कुछ ऐसी है। यहां अधिकतर परिवारों में लड़के ‘महान बेटों’ की तरह बड़े किए जाते हैं और बेटियां दबी कुचली। बहुत कम परिवार ऐसे होते हैं, जो बेटी की लड़ाई में उसके साथ खड़े हों या फिर उसके लिए किसी तरह की मदद की व्यवस्था करें। लड़की की शादी हो जाने के बाद उसे सिर्फ यही कहा जाता है, “जहां डोली गई है, अर्थी भी वहीं से निकलनी चाहिए।” और ऐसे में लड़की इसे ही ज़िंदगी का सच मान कर उसमें जीना शुरू कर देती है। बहुत कम ऐसी लड़कियां या औरतें होती हैं, जो अपने लिए लड़ सकें या आवाज़ उठा सकें।
लॉकडाउन के दौरान अप्रैल के महीने में दिल्ली से एक महिला का मेरे पास फोन आया और वह रोते हुए फोन पर बोली, “मेरा पति मुझे बहुत मारता है, मेरे ऊपर शक करता है, मेरे साथ जानवरों जैसा सुलूक करता है, मैं क्या करूं?” फिर कुछ दिनों बाद पता चला कि उस महिला ने अपने पति को छोड़ दिया और दिल्ली के किसी गेस्ट हाउस में जाकर रहने लगी। महिला दो बच्चों की माँ है और बच्चों को अपने साथ लेकर घर नहीं छोड़ सकती थी, इसलिए अकेले ही निकल गई। लेकिन फिर वापिस लौट गई और अब वहीं है और सारी ज़िंदगी वहीं रहेगी। अब अगर उसके साथ कोई घटना-दुर्घटना भी होगी, तो वो शायद किसी से ना कहे। हमारे देश की कानून व्यवस्था तो बहुत अच्छी है, लेकिन उससे जुड़कर काम करने वाले लोग, हमारा समाज, परिवार या करीबी दोस्त ही कभी-कभी औरत की लड़ाई में बाधा बन जाते हैं और जिस लड़ाई को औरत आसानी से जीत सकती है, उसे खत्म करते-करते उसकी उम्र गुज़र जाती है। हाल ही में आई एनएफएचएस रिपोर्ट के अनुसार पिछले कुछ महीनों के आंकड़ों पर जायें, तो देखेंगे कि लॉकडाउन के दौरान हिंसा का सामना करने वाली लगभग 86% महिलाओं ने किसी से मदद नहीं मांगी और 77% पीड़ितों ने अपने साथ होने वाली घटना का उल्लेख ही नहीं किया। कोविड-19 संबंधित लॉकडाउन के पहले चार चरणों के दौरान, भारतीय महिलाओं ने पिछले 10 वर्षों में समान अवधि में दर्ज की गई तुलना में अधिक घरेलू हिंसा की शिकायतें दर्ज कीं, लेकिन यह आंकड़ा भी बहुत छोटा है, क्योंकि भारत में घरेलू हिंसा का शिकार होने वाली 86% महिलाएं मदद मांगती ही नहीं हैं। भारत के 2012 के राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट में प्रति 100,000 पर 46% अपराध दर, 2 प्रति 100,000 बलात्कार दर, 0.7 प्रति 100,000 दहेज हत्या दर और पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा घरेलू क्रूरता की दर 5.9 प्रति 100,000 के रूप में बताई गई है। 2020 में, 25 मार्च से 31 मई के बीच महिलाओं द्वारा घरेलू हिंसा की 1,477 शिकायतें की गईं। 68 दिनों की इस अवधि में पिछले 10 वर्षों में मार्च और मई के बीच आने वालों की तुलना में अधिक शिकायतें दर्ज की गईं। राज्यों के हिसाब से चार्ट में दर्ज की गई घरेलू हिंसा की शिकायतों की संख्या को 2020 में अब तक प्रति दस मिलियन महिलाओं की शिकायतों की संख्या के खिलाफ दर्ज किया गया है। लगभग 14.3% मदद मांगने वाली पीड़ित महिलाओं में से केवल 7% महिलाएं ही संबंधित अधिकारियों, जैसे- पुलिस, डॉक्टरों, वकीलों या सामाजिक सेवा संगठनों तक पहुंची हैं और बाकी की 90% से अधिक पीड़ित महिलाओं ने सिर्फ अपने परिवार से तत्काल मदद मांगी।
भारत में कोविड-19 लॉकडाउन में महिलाओं की चार चरणों की अवधि के दौरान पिछले 10 वर्षों में समान अवधि में दर्ज की गई घरेलू हिंसा की शिकायतों की तुलना में अधिक दर्ज की गईं। कुछ दिन पहले मध्य प्रदेश कैडर के एक महानिदेशक रैंक के आईपीएस अधिकारी पुरुषोत्तम शर्मा का एक वायरल वीडियो क्लिप चर्चा में आया था, जहां वह अपनी पत्नी की पिटाई करते देखे गए थे। उनकी पत्नी ने कथित तौर पर पति के विवाहेतर संबंध होने के कारण उन्हें रंगे हाथों पकड़ा और उसका सामना किया था। अधिकारी के बेटे पार्थ गौतम शर्मा ने कथित तौर पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा और पुलिस महानिदेशक विवेक जौहरी को एक पत्र लिखा, जिसमें उनके पिता ने उनकी मां के खिलाफ घरेलू हिंसा का आरोप लगाया था। इसके बाद मप्र राज्य महिला आयोग कार्रवाई में जुट गया और कहा कि वह इस घटना का संज्ञान लेगा। इन सबके बाद पुरुषोत्तम शर्मा ने संवाददाताओं से कहा कि वह किसी भी तरह की घरेलू हिंसा में शामिल नहीं हैं। उन्होंने कहा, “मैंने कुछ नहीं किया। मैं किसी भी तरह की हिंसा में लिप्त नहीं हुआ। यह मेरी पत्नी और मेरे बीच का मामला है। उसने मेरे खिलाफ पहले भी 2008 में शिकायत की थी। हमारी शादी को 32 साल हो चुके हैं। वह मेरे साथ रह रही है और सभी सुविधाओं का आनंद ले रही है और मेरे खर्च पर विदेश यात्रा भी कर रही है। मुद्दा यह है कि अगर वह मुझसे परेशान है, तो वह मेरे साथ क्यों रह रही है? यदि मेरा स्वभाव अपमानजनक है, तो उसे पहले शिकायत करनी चाहिए थी। यह पारिवारिक विवाद है, अपराध नहीं। मैं न तो हिंसक व्यक्ति हूं और न ही अपराधी। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मुझे इससे गुजरना पड़ा।” किसी के इस तरह के लापरवाह जवाब के बाद क्या ही कहा जाये। शर्मा ने कानून को बनाए रखने और उसे तोड़ने के लिए शपथ ली थी, जो उन्होंने इस मामले में किया भी। इससे यह भी पता चलता है कि भारत में आर्थिक वर्गों में घरेलू हिंसा एक कड़वी वास्तविकता है जो सिर उठाये हमारे सामने खड़ी है। पुरुष मारपीट और हिंसा जैसी हरकतें भी करता है और उसके बाद पुरुषोत्तम शर्मा जैसे लोगों की तरह बात भी करता है, ये महसूस किए बिना कि उसका सिर्फ एक ही थप्पड़ उसके साथ रह रही औरत की ज़िंदगी तबाह कर सकता है। उसका कॉन्फिडेंस पूरी तरह खत्म कर सकता है। सोशल मीडिया से लेकर टीवी-सिनेमा तक, हर जगह हम घरेलू हिंसा का विरोध करते हैं, लेकिन अपने ही घर में जब इसका सामना करते हैं, तो मुश्किल हो जाता है। अच्छे-अच्छे पदों पर बैठे हुए लोग भी अपने पद की आड़ में या तो ऐसा कदम उठा लेते हैं या उन्हें अपने पुरुष होने का गुमान बहुत ज्यादा होता है। हम एक आधुनिक भारत बन चुके हैं, बड़ी बड़ी बातें करते हैं, लेकिन अब भी उस समाज का हिस्सा हैं, जहां अधिकतर परिवारों में औरत को अब भी संपत्ति समझा जाता है। डॉ. सपना कहती हैं, “सबसे पहले तो आज की तारीख में भी ऐसे कई पुरुष हैं जो कैरियर-उन्मुख या आत्मनिर्भर पत्नी नहीं चाहते। उन्हें डर होता है कि पत्नी यदि आर्थिक तौर पर उनके अधीन नहीं रही तो वह उनके सामने सिर उठा कर खड़ी रहेगी और उनके घर को कभी अच्छे से नहीं चला पायेगी, क्योंकि उनका मानना है कि एक नौकरीपेशा आधुनिक खयालों की औरत घर अच्छे से नहीं संभाल सकती। कई बार तो ऐसा भी होता है कि जो लड़कियां पहले से नौकरियां कर रही होती हैं, शादी के बाद सब छोड़ देती हैं और पूरी तरह से हाउस वाइफ बन जाती हैं, लेकिन इस परिस्थिति में भी पुरुष खामोश नहीं रहता, फिर वह औरत पर आरामतलबी और सुविधाओं का मुफ्त में आनंद लेने वाली जैसी बातें कहता है। किसी भी चीज़ के लिए पति ये कहने से पीछे नहीं हटता कि तुम कमाती तो जानती। दरअसल हम जिस तरह की परवरिश अपने बेटों को देते हैं, जिस तरह उन्हें बड़ा करते हैं, यह उसी का परिणाम है कि उनके लिए औरत सिर्फ एक मशीन बन कर रह जाती है और वह उसे कभी बराबरी या सम्मान का दर्ज़ा नहीं दे पाता।” अधिकतर मामलों में जो औरत नौकरीपेशा है, उसे चरित्रहीन, अराजक, बद्चलन या कई तरह के उपनामों का सामना करना पड़ता है घर के भीतर ही उसी पुरुष से जिसके बच्चों की वह मां होती है या फिर जिसका घर वह अपनी नौकरी के साथ-साथ संभाल रही होती है। वहीं दूसरी तरफ जो औरत अपने कैरियर को एक तरफ रख बच्चे संभालती है, उन्हें पढ़ाती है, भोजन की व्यवस्था करती है, पूरे घर का खयाल रखती है और मां-बाप का घर छोड़ पूरे समर्पण के साथ एक नये घर के पर्दे लगाती है, गुलदस्ते सजाती है, घर में रहती है, इसके बदले में वह सुनती है, “सारा दिन करती क्या हो, घर में ही तो रहती हो, आराम करती हो।” और ऐसे में पुरुष उसके लिए कुछ भी करता है, तो उस पर एहसान जताता है, कि “तुम्हारे आराम का खयाल भी तो मैं ही रखता हूं।” हम तो उस समाज का हिस्सा है, जहां पत्नी जब मार खाती है, तो कुछ लोग यह कहते हैं कि पत्नी की गलती है, उसने पति को गुस्सा दिलाया, उसे उक्साया इसीलिए उसने हाथ उठाया। जबकि हमारा कानून कहता है, गलती चाहे कितनी भी बड़ी हो, आप ना तो किसी औरत के साथ गलत सुलूक कर सकते हैं, ना गलत शब्दों का इस्तेमाल कर सकते हैं, ऐसे में हाथ उठाना तो बहुत बड़ी बात हो जाती है। जिसके लिए सिर्फ सज़ा मुकर्रर है, लेकिन ऐसे लोगों को कानून का भी कोई डर नहीं होता। सामाजिक कार्यकर्ताओं और एनजीओ ने घरेलू हिंसा के मामलों में वृद्धि के लिए कम साक्षरता दर और शराब का सेवन समेत अन्य कारणों को जिम्मेदार ठहराया है। जनस्वास्थ्य विशेषज्ञ पूनम मुतरेजा कहती हैं, “बड़े राज्यों में महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा के मामलों की संख्या में वृद्धि चिंता का विषय है, क्योंकि यह सभी क्षेत्रों में प्रचलित हिंसा की संस्कृति को दर्शाता है। दशकों से भारतीय समाज में पितृसत्ता निहित है जो घरेलू हिंसा को प्रोत्साहित करता है।” मुतरेजा ने कहा, ‘एनएफएचएस के सर्वेक्षण अनुसार, 31 प्रतिशत विवाहित महिलाओं को शारीरिक, यौन या भावनात्मक हिंसा का सामना करना पड़ा। इससे स्पष्ट है कि पिछले सर्वेक्षण के बाद से स्थिति और अधिक खराब हुई है। यह रिपोर्ट दर्शाती है कि कोविड-19 से पहले से ही हिंसा की यह महामारी प्रचलित थी जो इसके प्रभाव से प्रकट हो गई है।” साथ ही मुतरेजा ने यह भी कहा, “इस साल कोरोना वायरस के प्रसार के साथ घरेलू हिंसा की घटनाओं में वृद्धि दर्ज की गई है। भारत की सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली को घरेलू हिंसा को एक सार्वजनिक स्वास्थ्य चिंता के रूप में देखना चाहिए और इसे रोकने के लिए तत्काल कदम उठाना चाहिए।”
भारत में घरेलू हिंसा के निराशाजनक रिकॉर्ड भारत में घरेलू हिंसा हमेशा एक गंभीर मुद्दा रहा है, और COVID-19 ने इस स्थिति को और भी बदतर बना दिया है। आंकड़ों पर जायें, तो 25 मार्च से 31 मई 2020 के बीच महिलाओं द्वारा घरेलू हिंसा की 1,477 शिकायतें दर्ज़ करवाई गईं। इस अवधि में पिछले 10 वर्षों में मार्च और मई के बीच आने वाले लोगों की तुलना में अधिक शिकायतें दर्ज की गईं। राज्यवार आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले दो महीनों में उत्तराखंड में सबसे ज्यादा घरेलू हिंसा के मामले दर्ज किए गए। दूसरे नंबर पर हरियाणा और उसके बाद राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली रही। रिपोर्ट में सामने आए कुछ नंबरों के बारे में जानकर आप चौंक जाएंगे, जिसमें बताया गया है कि उत्तराखंड में घरेलू हिंसा के कुल 144 मामले सामने आए। हरियाणा से, मामलों की संख्या 79 थी और दिल्ली से कुल 69 मामले सामने आए। यहां तक कि तेलंगाना में भी महिलाओं को घरेलू हिंसा का सामना करना पड़ा। महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा के मामलों में सबसे बुरा हाल कर्नाटक, असम, मिजोरम, तेलंगाना और बिहार में है। सर्वेक्षण में 6.1 लाख घरों को शामिल किया गया। इसमें साक्षात्कार के जरिये आबादी, स्वास्थ्य, परिवार नियोजन और पोषण संबंधी मानकों के संबंध में सूचना एकत्र की गई। एनएफएचएस-5 सर्वेक्षण के मुताबिक, कर्नाटक में 18-49 आयु वर्ग की करीब 44.4 फीसदी महिलाओं को अपने पति द्वारा घरेलू हिंसा का सामना करना पड़ा। जबकि, 2015-2016 के सर्वेक्षण के दौरान राज्य में ऐसी महिलाओं की संख्या करीब 20.6 फीसदी थी। बिहार में 40 फीसदी महिलाओं को उनके पति द्वारा शारीरिक और यौन हिंसा झेलनी पड़ी जबकि मणिपुर में 39 फीसदी, तेलंगाना में 36.9 फीसदी, असम में 32 फीसदी और आंध्र प्रदेश में 30 फीसदी महिलाएं घरेलू हिंसा की शिकार हुईं। समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक इस सर्वेक्षण में सात राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों में पिछले एनएफएचएस सर्वेक्षण की तुलना में 18-49 वर्ष की आयु वर्ग की महिलाओं में घरेलू हिंसा के मामलों में वृद्धि दर्ज की गई। इन सात राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में- असम, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, सिक्किम, जम्मू और कश्मीर और लद्दाख शामिल हैं। आंकड़ों के अनुसार, नौ राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों – असम, कर्नाटक, महाराष्ट्र, गोवा, मेघालय, सिक्किम, पश्चिम बंगाल, जम्मू-कश्मीर और लद्दाख– में 18-29 वर्ष आयु वर्ग की महिलाओं में यौन हिंसा की प्रतिशत में वृद्धि हुई है, जिन्हें 18 साल की उम्र तक यौन हिंसा का सामना करना पड़ा। अफसोस की बात है कि घरेलू हिंसा के मामलों में यह वृद्धि केवल भारत तक ही सीमित नहीं है। लॉकडाउन ने दुनिया को एक ठहराव की स्थिति में ला दिया था और इसके साथ ही दुनिया भर में महिलाओं के जीवन को एक अपमानजनक स्थिति में हैं। यदि हम दुनिया भर की रिपोर्ट्स को देखें तो लॉकडाउन के दौरान नियमित आधार पर एक ही हिंसा को बार-बार दोहराया गया। महिला अधिकार कार्यकर्ता शमीना शफीक कहती हैं, “सरकार को घरेलू हिंसा को लेकर सख्ती से पेश आने की जरूरत है। दुर्भाग्य से पुरुष को लगता है कि महिला को पीटना उसका अधिकार है। वह इस तथ्य का आनंद लेता है कि वह किसी दूसरे व्यक्ति के जीवन को नियंत्रित करता है। आज भी सरकार इस बारे में बात नहीं कर पा रही है कि किसी भी व्यक्ति के लिए यह कितना बुरा है। हिंसा करने वालों के लिए दीवारों पर लिखना चाहिए कि घरेलू हिंसा गलत है।” वहीं दूसरी तरफ, पीपुल्स अगेंस्ट रेप्स इन इंडिया (पीएआरआई) की प्रमुख योगिता भयाना कहती हैं, “घरेलू हिंसा में वृद्धि दर्ज करने का कारण महिलाओं में दुर्व्यवहार प्रति जागरूकता आना और रिपोर्ट करना भी हो सकता है।इस तरह की घटनाओं में वृद्धि दर्ज हुई है क्योंकि महिलाओं में भी जागरूकता बढ़ रही है। वे इसकी रिपोर्ट कर रही हैं और इसके बारे में बात कर रही हैं। पहले वे अपनी शिकायतों को दबा देती थीं। सोशल मीडिया की वजह से भी घरेलू हिंसा की रिपोर्टिंग में वृद्धि हुई है। महिलाएं अधिक मुखर हो गई हैं और उनमें सहनशीलता कम है, जो बहुत अच्छी है।” एनएफएचएस ने सर्वेक्षण के पहले चरण के तहत 17 राज्यों और पांच केंद्र शासित प्रदेशों की रिपोर्ट जारी की है। स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा है कि सर्वेक्षण के दूसरे चरण की रिपोर्ट अन्य राज्यों को कवर करते हुए अगले साल जारी की जाएगी।