असली भारत देखना है तो एक बार टिकरी- सिंधु -गाजीपुर बार्डर जरूर आइए, सरकार इसे अब आंदोलन समझना छोड़ दे..
रणघोष खास. प्रदीप नारायण
कहने को तीन बिलों के खिलाफ यह किसान आंदोलन है। एक बार दिल्ली की सीमाओं पर डटे इन किसानों के बीच पहुंच जाइए जिंदगी और इतिहास का सिलेबस ही बदल जाएगा। 20 साल की पत्रकारिता में तमाम तरह के आंदोलन, घटनाओं को कवरेज किया बुधवार को जब टिकरी बार्डर पहुंचे तो ऐसे भारत से सामना हो गया जो देश की आजादी के बाद से आज तक जाति- धर्म और क्षेत्रीयता में बंट चुका था। वह अब एक ही रंग में नजर आ रहा था। वह भी दिल्ली के दिल में। इस आंदोलन को लेकर किसी भी तरह की टीका टिप्पणी करने वालों को पहले टिकरी, सिंधु, गाजीपुर बार्डर पर जरूर आना चाहिए। एक बड़ी गलती करने से बच जाएंगे जो अब केंद्र सरकार के मंत्रियों के खातें में दर्ज हो चुकी है। तीनों बिल काले है या सफेद अब मसला इतना बड़ा नहीं रहा जितना नाराजगी का नफरत में बदलना। इसे हम सभी को मिलकर रोकना होगा इसमें सबसे बड़ी जिम्मेदारी सरकार की है। सैकड़ों- हजारों किमी रास्ते को नापकर 70 दिनों से डेरा जमाए किसानों के भीतर की थकान हरियाणा- पंजाब- के भाईचारे की खुराक से उत्साह- जोश में बदल गई है। रोहतक सांपली से राज सिंह, कृष्ण कुमार हो या पंजाब फिरोजपुर, बठिंडा से आए बोगा सिंह, मान सिंह का लहजा बोली के हिसाब से अलग था लेकिन मिजाज एक जैसा ऐसा मानो किसी मेले में बिछड़े भाईयों का मिलन हुआ हो। सरकार जितनी जल्दी इसे समझ जाए बहुत जरूरी है। वह अभी भी इसे आंदोलन समझने की गलती ना करें। दिल्ली की सीमाओं पर अब आपसी भाईचारा, एकता ने अपनी जड़ें जमा ली है जिसे ठोंकी जा रही कीलें नहीं रोक पाएगी। इन सीमाओं पर 10 से 15 किमी तक कहने को ट्रोलियां एवं तंबू नजर आते हैँ। असल में जब करीब जाकर देखेंगे तो ऐसा लगेगा किसी उत्सव में आए हो। हमें नही पता मीडिया का एक बड़ा तबका और नेता क्यों इसे अब आंदोलन का नाम दे रहे है। महिलाएं ट्रैक्टरों में लोकगीत की धुन में नाचते थिरकते हुए आ जा रही है। जगह जगह लंगर लगे हुए हैं। लगी छोटी- छोटी दुकानों का सामान एक और सही दाम में बिक रहा है। टैंपो वाला जायज किराया मांग रहा है। दुकानदार यह कहकर एलईडी बल्ब के पैसे नहीं ले रहा कि जब जाओ तो इसे वापस कर जाना। सुबह उठते ही दूध- सब्जी- पानी पहुंच रहा हो वह भी आस पास गांवों से। युवा व छोटे बच्चे किसान एकता जिंदाबाद के नारों में झूम रहे हो। चौकड़ी बनाकर एक दूसरे को बाबा- तॉऊ- चाचा- भाई कहकर ठहाके मार रहे हो। पॉलीथीन बिनने वाले मजदूर से लेकर शानदार गाड़ियों से उतरने वाले लंगर चखने के लिए एक ही लाइन में लगे हुए हो। इसे आंदोलन कैसे कह सकते हैं। इसका जन्म जरूर इसी सोच से हुआ था लेकिन सच यह है कि यह उस असली भारत की तरह नजर आने लगा है जिसे हम अक्सर सभी धर्मों में, संविधान और लोकतांत्रिक व्यवस्था को लेकर स्कूल- कालेजों में पढ़ाई जाने वाली पुस्तकों में पास होने के लिए पढते रहे हैं।