आज हालात यह बन गए हैं कि असली देशभक्त असली राष्ट्र द्रोही कौन हैं? यह अब जनरल नॉलेज का सवाल बन गया है
रणघोष खास. देशभर से
गृह मंत्रालय ने राज्यसभा में बताया कि 2020 में आईपीसी की ‘राज्य के ख़िलाफ़ अपराध‘ शीर्षक अध्याय की धारा 124 (अ) यानी राष्ट्र–द्रोह के आरोप में जिन 96 लोगों को गिरफ़्तार किया गया, उनमें से केवल दो को सज़ा हुई जबकि 29 बरी हो गए और 53 के खिलाफ एक साल बाद भी पुलिस ने चार्जशीट दाखिल नहीं किया। कुल गिरफ़्तार लोगों में 68 बीजेपी–शासित चार राज्यों (कर्नाटक-22, असम -17, जम्मू–कश्मीर-11, यूपी-10, और नागालैंड-8) से हैं। आतंकवाद–विरोधी टाडा और पोटा के कड़े विकल्प के रूप में लाये गए यूएपीए के तहत 2016-19 के बीच जिन लोगों को निरुद्ध किया गया उनमें से आज तक केवल 2.2 प्रतिशत को ही सज़ा हुई। सरकार ने कहा कि वह धर्म के आधार पर आंकड़े नहीं रखती। उत्तर प्रदेश में एक महीने पुराने धर्मान्तरण क़ानून में पुलिस एक संप्रदाय–विशेष के 49 युवाओं को 14 मामलों में जेल भेज चुकी है। इनमें से 12 मामलों में ज़बरिया धर्म परिवर्तन की कोई शिकायत नहीं है। बीजेपी–शासित कई अन्य राज्य भी ऐसे क़ानून बना रहे हैं। गृह मंत्रालय को तलाश है देश में ऐसे साइबर–वालंटियर्स की जो कई गंभीर अपराधों, आतंकवाद, कट्टरवाद और राष्ट्र–विरोधी ग़ैर–क़ानूनी कंटेंट देने वालों की पहचान करें और उनके बारे में मंत्रालय को बताएं। स्वयंसेवक अपना नाम, पता और फ़ोन नंबर मिनिस्ट्री के साइबर क्राइम कोआर्डिनेशन सेल में पंजीकृत करायेंगें। लेकिन वे अपने इस नए रोल को सार्वजानिक नहीं कर सकते। कुल मिलाकर देश में ‘राष्ट्रभक्तों‘ का एक वर्ग राज्य–शक्ति का औपचारिक समर्थन पा कर राष्ट्र–विरोधियों की पहचान करेगा। भारत के संविधान ने ‘राष्ट्र की सुरक्षा‘ के नाम पर केवल राज्य को इसलिए शक्तियां दी हैं कि अगर कोई नागरिक अपनी अभिव्यक्ति से सुरक्षा के लिए ख़तरा पैदा करता है तो उसकी आज़ादी पर ‘रिज़नेबल रेस्ट्रिक्शन‘ (युक्तियुक्त निर्बंध) लग सके। लेकिन यह रोक तभी संभव है जब राज्य का कदम रिज़नेबल हो। विरोधी स्वरों को ‘आन्दोलनजीवी‘ और ‘फॉरेन डिस्ट्रकटिव आइडियोलॉजी‘ (एफ़डीआई) यानी विदेशी विध्वंसक विचारधारा बताना कहीं लोकतंत्र में विरोध की अपरिहार्यता की मूल भावना के ख़िलाफ़ है।
असली राष्ट्र-द्रोही कौन?
केंद्र सरकार इस बात पर भी विचार कर रही है कि देश में 50 वर्ष से ऊपर वाले सभी 27 करोड़ लोगों को मुफ़्त टीका लगवाया जाये। वैसे यह मोदी सरकार की सुखद सोच कही जा सकती है, लेकिन इसका फ़ैसला इस बात पर निर्भर करेगा कि राज्य सरकारें भी टीका लगवाने और टीका के रखरखाव पर आने वाले व्यय को तैयार हैं या नहीं। केंद्र ने जो 35 हज़ार करोड़ रुपये का बजटीय प्रावधान किया है, उससे देश के 45 करोड़ लोगों को टीके लग सकते हैं। केन्द्र को कोविशिल्ड 210 रुपये की और कोवैक्सीन 295 रुपये की कीमत पर मिल रहे हैं। जाहिर है केंद्र की मंशा कोरोना को लेकर बेहद सकारात्मक है, लेकिन क्या उसी दल या सहयोगी दलों की राज्यों की सरकारें उसी नेकनीयती से काम करेंगी और क्या कोई ममता और अमरिंदर सरकार अपना हिस्सा देने को तैयार होंगी?
टीकाकरण में भी घपला!
उत्तर भारत के सबसे ग़रीब और पिछड़े राज्य बिहार, जो मात्र एक छोटे समय को छोड़ कर लगभग डेढ़ दशक से बीजेपी–समर्थित नीतीश कुमार के शासन में हैं और जिसके मुख्यमंत्री भारत में कोरोना युद्ध में सबसे आगे होने का दवा कर चुनाव भी जीत चुके हैं, में ताज़ा ख़बरों के अनुसार फ़र्जी नाम, पते, और मोबाइल नंबर दिखाते हुए सरकारी कर्मचारियों ने जाँच का आँकड़ा पूरा किया। कई जगह दो दर्जन से ज्यादा कोरोना टेस्ट किये गए तथाकथित लोगों का एक हीं फ़ोन नंबर दिया गया, जबकि कई मोबाइल नंबर दूसरे राज्यों के निकले। कुछ अन्य मामलों में मोबाइल नंबर के आगे ०००००००००० लिखा गया ताकि इलेक्ट्रॉनिक डाटा का कालम पूरा किया जा सके। कुछ अन्य मामलों में स्वास्थ्य कर्मचारियों के ही फ़ोन नंबर जाँच किये गए लोगों के नंबर के रूप में रिकॉर्ड में दर्ज हैं। जब मोबाइल नंबर वालों से पूछा गया कि क्या उनका कोरोना टेस्ट अमुक दिन या किसी दिन हुआ तो उन्होंने अनभिज्ञता जाहिर की। इसी बीच आईसीएमआर का कहना है कि ‘रिप्रोडक्शन फैक्टर‘ के आंकड़े बताते हैं कि अभी भी हर कोरोना मरीज कम से कम दो अन्य लोगों को संक्रमित कर सकता है। उनके अनुसार शहरों से ज्यादा ख़तरा अब ग्रामीण इलाकों में हैं। ऐसे में फ़र्जी आँकड़े दे कर सरकारों का दावा कि उनके राज्य में कोरोना ख़त्म हो रहा है या अवसान पर है, देश को दुबारा संकट में डाल सकता हैं।जहां एक तरफ ये सरकारें भाषण देने वालों को देशद्रोह के मुकदमें में फँसा रही हैं और महीनों जेल में रहने के बाद अदालतों से उन्हें राहत मिल रही है, वहीं उन सरकार के कर्मचारियों द्वारा कोरोना जैसे संकट में फ़र्जीवाड़ा करना क्या असली राष्ट्र–द्रोह नहीं है?