रणघोष खास. प्रदीप नारायण
हम लोग घर के पढ़ाई लिखाई में कमजोर बच्चे को किसान बनाते हैं, जो पढ़ लिख जाते हैं उन्हें नौकरी के लिए बाहर भेज देते हैं, फिर सोचते हैं कि खेती से कमाई हो। खेती के बारे में किसानों की राय सोच बड़ी परंपरागत है। खेती को मुख्य व्यव्साय नहीं बल्कि कुछ न होने पर उसे करते हैं। घर के जो पढ़े लिखे लड़के होते हैं उनके नौकरी और दूसरे व्यवसाय करवाते हैं जबकि जो पीछे रह जाता है उसे खेती में ढकेल देते हैं। जो किसी तरह उसे बस ढोते रहते हैं न अपने तरफ से कोई प्रयास करते हैं न नए तरीके अपनाते हैं, जो उनकी पिछड़ने और घाटे का कारण बनता है।“ हम सभी किसी न किसी एक पीढ़ी में गांव में पैदा हुए, यहीं पाले बड़े और फिर शिक्षा के लिए, रोजगार की तलाश में या शहर की चकाचौध में बड़े महानगरों और शहरों में जा कर बस गए।किसी के बाबा किसान थे, तो किसी के नाना किसान थे या किसी के पिता किसान है।कोई अछूता नहीं है खेती–किसानी से, लेकिन किसी की एक पीढ़ी शहर में रह लें, तो इन्हें गांव के लोग इंसान नहीं लगते है।जब भी ये लोग या इनके बच्चें शहर से आते है तो बड़े बाबू जी हो जाते है।ये सब भूल जाते है कि हम इसी गांव की मिट्टी और खेती–किसानी से होकर ही शहर की यात्रा तय कर पाए है।
गांव से ही न जाने कितने नेता, अभिनेता, अधिकारी और देश के मुखिया निकलें पर गांव और किसान की सुध लेने गांव कोई नहीं आना चाहता है।आखिर क्यों? नई पीढ़ी किसानों को अपना रोल मॉडल नहीं बनाना चाहती है।गांव से ही निकल कर न जाने कितने ही लोगों की किस्मत बदल गई, लेकिन न किस्मत गांव की बदली और नहि किसान की पीड़ा कम हुई।जो किसान अनाज उगा कर सारे जगत का पेट भरता है, क्या हमनें कभी उसकी हथेली देखी है?
अगर नहीं देखी है तो कभी जाओ अपने गांव और देखों अपने दादा, नाना, पिता, चाचा, भाई की हथेली और गांव में उनसे पूछो कितना संघर्ष करते है सबका पेट पालने के लिए।काश! कभी कोई इनकी खुरदुरी हथेली पर भी हाथ रख कर इनके मन के दर्द को भी समझता और बांटता, जिससे किसानों को भी उम्मीदों की नई किरण दिखाई दें।