कोसली में फंस गए दीपेंद्र, चार चेहरे वाले समर्थकों में घिरे, असली कौन पता नहीं
रणघोष खास. सुभाष चौधरी
लगता है राज्य सभा सांसद दीपेंद्र सिंह हुडडा रोहतक की ससंसदीय सीट का हिस्सा कोसली की राजनीति में उलझते नहीं फंसते जा रहे हैं। उनका इस हलके में आना और सभी को एकजुट करके रखना महाभारत को रोकने जैसा है। दरअसल हुडडा के आस पास जो समर्थक व पार्टी कार्यकर्ताओं की भीड़ दिखाई देती हैं उसमें आधे से ज्यादा तो मिलावटी व गिरगिट की शक्ल में है जो दीपेंद्र के आने से पहले विशेषतौर से चार तरह के चरित्र में नजर आते हैं।
पहला चरित्र जिसकी राजनीति दिलचस्पी हुडडा कांग्रेस की विचारधारा से शुरू होकर उसी पर कायम है। ऐसे कार्यकर्ता हुडडा परिवार के आस पास भीड़ का घेरा बनाकर नजर नहीं आएंगे। वे अनुशासित सिपाही की तरह बिना शोर मचाए अपनी मौजूदगी बताकर व दिखाकर चले जाएंगे। उनका मकसद अपने नेता के अच्छे बुरे वक्त में हमेशा खड़े रहना है। वे दिमाग से नहीं दिल से जुड़ते हैं। ऐसे में वे हाजिरी लगाने व खास बनने की होड़ से दूर रहते हैं। अपने इन कार्यकर्ताओं को वहीं नेता समझ पाता है जो जमीनी स्तर पर अपनी सोच के साथ राजनीति करता है। दूसरे चरित्र वाले समर्थक व कार्यकर्ताओं में वे आते हैं जिसकी जमीनी हैसियत जीरो है लेकिन अपनी चाटुकारिता शब्दावली वह चेहरा दिखाकर कार्यक्रम के मंच पर हल्ला बोल व लोकल मीडिया में आसानी से छपने वाली खबरों में सुर्खियां बटोर अपना मकसद पूरा कर जाते हैं। सत्ता का सबसे ज्यादा फायदा उठाने की महारत भी इनके पास होती है। ये हुडडा परिवार के सबसे नजदीक होने का पांखड कर उन लोगों का इस्तेमाल कर जाते हैं जिसके दिमाग में चालाकी नहीं होती। कोसली में तीसरे व चौथे चरित्र वाले हुडडा समर्थक क्षेत्रीय राजनीति के मिजाज से जुड़े हुए हैं जो चुनाव के समय इधर उधर होते रहे हैँ। मसलन भाजपा छोड़कर हुडडा खेमें से एंट्री करने वाले पूर्व मंत्री जगदीश यादव की इस सीट पर अपनी जमीनी ताकत है। जिसकी बदौलत वे टिकट की शर्त पर भाजपा व कांग्रेस से भरोसा लेकर धोखा खा चुके हैं। पिछले चुनाव में भाजपा से टिकट मिलने की उम्मीद में उन्होंने कोसली से दीपेंद्र को ही सांसदी में हरवाने का काम किया। अब इसी नेता के साथ 2024 के चुनाव में टिकट मिलने के भरोसे मंच पर नजर आ रहे हैं। अगर जगदीश यादव को टिकट मिलती है तो क्या गारंटी है कि दीपेंद्र के कहने पर नजर आ रही भीड़ जगदीश के साथ खड़ी हो जाएगी। ऐसा किसी सूरत में संभव नजर नहीं आ रहा है। इस सीट पर जगदीश की राजनीति की आक्सीजन एंटी रामपुरा हाउस रही है। जिस दिन उन्होंने इस हाउस के खिलाफ बोलना बंद कर दिया उसी दिन से वे सिमटना शुरू हो जाएंगे। यही वजह है कि जगदीश की जुबान पर कांग्रेस भाजपा से ज्यादा यह परिवार ज्यादा निशाने पर रहता है। इस परिवार से ही राव यादुवेंद्र सिंह हुडडा खेमें में रहकर दो बार जीतकर दो दफा हार चुके हैं लेकिन इस परिवार का साथ नहीं छोड़ा। यादुवेंद्र को राजनीति ताकत अपने परिवार की विरासत से मिलती रही है। जगदीश के कांग्रेस में आने पर यादुवेंद्र सिंह साफ कर चुके हैं कि आना जाना लगा रहता है। 2024 का चुनाव वे ही लड़ेगे। जगदीश को टिकट की कोई गांरटी नहीं मिली है। इन सभी वजहों के चलते कोसली में पिछले दिनों जितने में कांग्रेसियों के कार्यक्रम हुए हैं जगदीश यादव, यादुवेंद्र सिंह समर्थक एक दूसरे से भिड़ने की पोजीशन में नजर आए हैं। भाजपा छोड़कर हुडडा से जुड़े अनिल पाहलावास के संयोजन में 5 नवंबर को हुए कार्यकर्ता सम्मेलन मे यही नजारा देखने को मिला। यहां राव इंद्रजीत की आलोचना करते ही जगदीश यादव का मंच पर विरोध शुरू हो गया।
यहां हुडडा की दिमागी कसरत काम कर सकती है
यहां हुडडा परिवार की एक दिमागी कसरत काम कर सकती है। दीपेंद्र जानते हैं कि कोसली का वोट बैंक ही उसकी हार- जीत की वजह तय करता रहा है। पिछले दो चुनाव में यहां की जनता ने उन्हें पूरी तरह हराकर भेजा था। 2014 में किसी तरह दूसरे हलकों की बदौलत जीत गए थे । 2019 में भाजपा से डॉ. अरविंद शर्मा का कोसली ने तबीयत से साथ दिया। रही सही कसर भाग्य ने पूरी कर दी ओर दीपेंद्र को हारना पड़ा। कमाल की बात यह रही की डॉ. अरविंद शर्मा इस सीट से लड़ना ही नही चाहते थे। चुनाव मतदान के ऐन वक्त पर उन्हें टिकट दी गईं थी। इन दोनों चुनाव से सबक लेकर दीपेंद्र समय रहते इस इलाके में लोकसभा चुनाव तक वे किसी को नाराज नहीं करना चाहेंगे। सभी टिकट के दावेदारों की जेब में उनके भरोसेमंद वाली टिकट पहले ही डाल दी गई है। जब विधानसभा चुनाव आएंगे उस समय लक्की ड्रा की तरह घोषणा हो जाएगी। तब तक हुडडा का मकसद पूरा हो जाएगा। यही राजनीति का गणित भी है।
कोसली में आधे से ज्यादा दावेदार हवा हवाई
यहां बताना जरूरी है कि इस सीट पर कांग्रेस की तरफ से टिकट के दावेदारों में आधे से ज्यादा तो हवा हवाई है। जो धन बल की बदौलत से माहौल बनाकर अपने छिपे एजेंडे को पूरा करने के इरादे से मेले में दुकान की तरह कार्यालय खोलते हैँ। सामाजिक कार्यक्रमों में पर्ची कटवाकर मुख्य अतिथि बन सुर्खियां बटोरते हैं। इन दावेदारों को पता है कि टिकट उन्हें नहीं मिलने वाली है। वे चुनाव में नाराज या बागी नहीं होने का अपने नेता से अंदरखाने सौदा करते हैं। जैसे ही सत्ता आती है कोई ना कोई पद या बड़ा काम लेकर अपने एजेंडे को पूरा कर जाते हैं। इसलिए गौर से देखिए चुनाव से एक साल या छह माह पहले टिकट के दावेदार कांग्रेस घास की तरह नजर आएंगे जो अच्छी खासी फसल को इस घास की तरह खत्म करने के अलावा कुछ नहीं कर सकते।