रणघोष खास. प्रदीप नारायण
बात कर रहे हैं किसान की, कोरोना और उस सोच की जिसे पिंजरे का तोता बना रखा है। उसे वहीं बोलना है जो उसका मालिक सुनना पंसद करता है। देश में क्या चल रहा है। यह बताने की जरूरत नहीं है। जो कुर्सी पर बैठा है वो सही है। जो सड़क पर है वह खुद को सही साबित करने का संघर्ष कर रहा है। इस लड़ाई में दिल्ली पहुंचे अगर किसान जीत भी गया तो उसे हकीकत में जमीन पर क्या मिलेगा। यह खुद किसान को नहीं पता। संसद के पटल पर, न्याय के मंदिर में, धर्म के पवित्र स्थान से पूछिए। वे बताएंगे किस तरह यहीं पर खड़े होकर अलग अलग चेहरों में लोग आते हैं और अखंड प्रतिज्ञा के नाम पर उनकी गरिमा को तार तार करके चले जाते हैं। हमें नहीं पता नेता क्या सोचकर राजनीति करते हैं। हमें यह भी नहीं पता कि देश की आजादी के 73 सालों में हमने क्या खोया क्या पाया। हमें यह भी नहीं पता कि हमें क्यों आंकड़े दिखाए जाते हैं । वो कब झूठ बनकर डरा दे और कब सच का नाटक कर हमें गुमराह कर दे। आज तक नहीं समझ पाए। इतना जरूर जानते हैं कि आंकड़ों की जिम्मेदारी नेताओं ने ले रखी है। हमें यह बिल्कुल नहीं पता हमारे नेताओं ने अलग अलग विचारधारा से देश को मजबूत करने का काम किया या बांटने का। हमें यह भी नहीं पता कि जिस जिम्मेदारी- जवाबदेही के साथ वे बोलते हैं उसमें सच खुद पर कितना गर्व महसूस करता है। हमें यह भी नहीं पता कि बिना औकात वाले पाकिस्तान पर रौब दिखाकर हमने कौनसा तीर मार लिया। हम यह भी नहीं पता कि चीन का सामान कब सीमा को पार कर हमारे घरों में पहुंच गया। हमें यह भी नहीं पता आखिर कब तक सात समुंद्र पार अमेरिका के मिजाज से हम अपने देश का बीपी- शुगर चैक करते रहेंगे। हमें यह नहीं पता कि तुलसीदास, कबीरदास, मुंशी प्रेमचंद, गुरु नानक जैसे महान संतों वाले देश में जब मोहदम्मद रफी की आवाज कानो में पड़ती हैं तो बाबुल की दुआए वाला गीत हमें क्यों रूला देता है। हमें यह नहीं पता कि जब खून की जरूरत पड़ती है तो वह जाति- धर्म के हिसाब से क्यों नहीं चढ़ता। जब से कोरोना आया है हमें जरूर अहसास हो गया है गांव की माटी में बड़ा होकर मोटी- मोटी किताबों को पढ़कर शहर में बसा युवा इंडियन बन चुका है और गांव में रहने वाला नौजवान खुद को भारत में अपने वजूद को तलाश रहा है। सही मायनो में यह लड़ाई इंडिया- भारत को लेकर बनी मानसिकता से है। जिसकी वजह से गांव का किसान वहीं खड़ा है जहां उसे हमें छोड़कर गए थे। जिसे हम असली भारत कहते हैं। वहीं शहर में रहने वाला युवा चांद पर जाने की तैयारी कर रहा है जिसे हम इंडियन कहते हैं। हमें इतना जरूर पता है कोरोना ने जब अपना कहर दिखाया तो चांद की बात करने वाले खुद को बचाने के लिए गांव में दौड़ पड़े। जहां किसान ने अपनी खेती के आंचल में लेकर उसे बचा लिया।। हमें इतना पता है जब देश में लॉकडाउन था। सभी घरों में बंद थे। एक किसान ही था जो हमारे पेट की चिंता कर खेतों में डटा हुआ था। जब लॉकडाउन हटा, पेट भरा हुआ लगा। हमने वापस अपनी हरकतों पर आ गए। सबकुछ वहीं करने लग गए जो कोरोना से पहले कर रहे थे। सोचिए पिछले आठ महीनों में कोरोना ने हमें क्या दिया ओर हमने कौनसा सबक लिया। कोरोना ने अपना डर दिखाकर देश को एकजुट करने का काम किया। कोरोना की वजह से इंडिया- भारत की मानसिकता खत्म होने लगी थी। कोरोना ने ही अहसास कराया सब एक हो। कोई जाति- धर्म नहीं पहले इंसान हो। उसने अमीर- गरीब, तेरा- मेरा, छोटा- बड़ा, हिंदू- मुसलमान जैसी सोच वाली इंसानी वायरस को खत्म करने का काम किया। इसलिए झोपड़ी से लेकर महल में रहने वालों के लिए एक जैसा व्यवहार किया। कोई छल कपट, हिंसा या एक दूसरे का खून बहाने का रास्ता नहीं अपनाया। आज हम इंसान बेशक उसे वायरस कहकर चिल्लाते रहे , महामारी कहे, वह सबकुछ कहे ताकि हम अपनी जिम्मेदारियों से बच जाए। नेता रैलियां करें, रोड शो करें उनके लिए कोरोना अलग मायने रखता है। एक पिता अपनी बेटी की शादी करे, स्कूल वाले बच्चो को पढ़ाने की हिम्मत दिखाए। किसी के पार्थिव शरीर को श्मशान घाट तक पहुंचाना है तो उसके लिए अधिकारियों की लिखित में चिट्ठी चाहिए। आज हमारा किसान जिसकी वजह से हम जिंदा है। जिसकी वजह से हम कोरोना से दो दो हाथ कर रहे हैं। उस किसान का भरोसा जीतने के लिए सरकारें एवं नेता 73 सालों में एक भरोसा तक कायम नहीं कर पाए। सोचिए एक कोरोना है जो ईमानदार सोच से डरता है। दूसरी तरफ हम है जो खुद को ईमानदार साबित करने के लिए एक दूसरे का इस्तेमाल और जिम्मेदार मान रहे हैं।
हमे तय करना है किसान को सम्मान, कोरोना पर कंट्रोल एक दूसरे पर हमला करके नहीं होगा। यह समय एक दूसरे की ताकत बनने का है।