सीएए और एनआरसी को लेकर फरवरी महीने में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में भड़के साम्प्रदायिक दंगों के एक मामले पर सुनवाई करते हुए अदालत ने कहा कि इन दंगों ने देश के विभाजन के समय हुए नरसंहार की याद को ताजा कर दिया। अदालत ने इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) के अधिकारी अंकित शर्मा की हत्या से जुड़े मामले की सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की।
कड़कड़डूमा स्थित अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश विनोद यादव की अदालत ने एक आरोपी की अग्रिम जमानत याचिका को खारिज करते हुए कहा कि दंगे एक आग की तरह होते हैं, जोकि अगर किसी जंगल में लग जाए तो वह तेजी से फैलती है। बेशक इस बार दिल्ली के एक हिस्से में यह दंगे हुए, लेकिन भारी जान-माल का नुकसान हुआ। अगर इस बार इन दंगों को गंभीरता से नहीं लिया गया तो निश्चित तौर पर दंगों की आग दूसरे क्षेत्रों को अपनी चपेट में लेगी और ना जाने और कितने बेकसूर इनकी चपेट में आएंगे।
इस मामले में आरोपी ने अपनी पत्नी की बीमारी का हवाला देते हुए अग्रिम जमानत की मांग की थी, लेकिन अदालत ने कहा कि यह अपराध इतना भयावह है कि इसके सामने सभी दलीलें बौनी साबित होती हैं। जिस समय दंगे फैलाए जा रहे थे तब लोगों को अपने परिवार या अन्य रिश्तों की परवाह क्यों नहीं थी। अब जब खुद पर कानूनी शिकंजा कसने की बारी आई तो परिवार, पत्नी और ना जाने किन-किन रिश्तों की याद आरोपियों का आ रही है।
अदालत ने यह भी कहा कि उन लोगों के दर्द को समझने का प्रयास भी करना चाहिए, जिन्होंने कोई कसूर ना होते हुए भी अपने परिवार के सदस्यों या फिर दुकान, मकान या लूट जैसी मार का सहा है। यह पूरा घटनाक्रम उस समय को याद दिलाता है जब देश का विभाजन हुआ था और दो समुदायों की तरफ से एक-दूसरे को भारी से भारी नुकसान पहुंचाने का जुनून था। अदालत ने कहा कि बेशक उस समय को प्रत्यक्ष देखने वाले लोग बहुत कम होंगे, लेकिन उस दर्द को अब तक महसूस किया जा सकता है।