देश की राजनीति को समझने के लिए इस लेख को जरूर पढ़िए

बिना विचारधारा के भाजपा के युग में नहीं टिक सकती पार्टियां


 कांग्रेस को भी नए ढंग से बदलने की ज़रूरत


क्या विचारधारा अब बेमानी हो गई? जी नहीं, पिछले दशकों में यह जितनी बड़ी ताकत थी, आज उससे कहीं ज्यादा मजबूत ताकत बन गई है. सिवाए इसके कि यह केवल बीजेपी के मामले में कारगर दिख रही है.


रणघोष खास. शेखर गुप्ता, दि प्रिंट साभार


महाराष्ट्र में इस हफ्ते जो नाटकीय उलटफेर हुआ वह हमारी राष्ट्रीय राजनीति को एक पहेली के रूप में पेश करता है — कि आज हम कहां आ पहुंचे हैं, हम यहां कैसे पहुंचे, और आगे किस दिशा में जाएंगे. इससे कुछ दिलचस्प सवाल उभरते हैं. क्या विचारधारा का हमारी राजनीति में अब कोई महत्व रह गया है? आप शायद यह सोच रहे होंगे कि आज यह बेमानी हो गई है, लेकिन उदाहरण के लिए जरा आम आदमी पार्टी (आप) के उभार पर नज़र डालिए.भ्रष्टाचार मुक्त सरकार और ‘मुफ्त-में-ये और मुफ्त-में-वो’ देने के वादे चाहे जितने नैतिकतापूर्ण लगें, उनसे विचारधारा नहीं बनती, चाहे आप दीवार पर आंबेडकर और भगत सिंह की बड़ी-बड़ी तस्वीरें क्यों न टांग दें.पर्दे के दूसरे छोर पर, महाराष्ट्र में जो कुछ किया गया उससे भी इसी नतीजे पर पहुंचा जा सकता है—पहले शिवसेना ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) से पाला बदलकर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) और कांग्रेस से गठबंधन किया, जो विचारधारा के लिहाज़ से उसकी घोर प्रतिद्वंद्वी थी. कुछ समय बाद इन तीन में से दो में फूट पड़ गई और उनके ज़्यादातर विधायकों ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से हाथ मिला लिये. ऐसे में राजनीति में विचारधारा और सिद्धांत का क्या हश्र हुआ? एनसीपी नेता और यूपीए सरकार में मंत्री रहे प्रफुल्ल पटेल ने पत्रकारों के सवाल का जवाब देते हुए इस दलबदल के बारे में जिस तरह सफाई दी उसने हमें कुछ अंतर्दृष्टि प्रदान की. उन्होंने कहा, एनसीपी को शिवसेना से हाथ मिलाने में कोई दिक्कत नहीं हुई, तो अब भाजपा से हाथ मिलाने में समस्या क्यों होनी चाहिए?मैंने शरद पवार का यह बयान कहीं पढ़ा था कि शिवसेना के समावेशी हिंदुत्व को स्वीकार करना तो ठीक है मगर भाजपा के हिंदुत्व को नहीं, जो कि,आप जानते हैं, बकवास किस्म का है.हकीकत यह है कि अगर आप बड़ी तस्वीर पर खुले दिमाग से नज़र डालेंगे तो पाएंगे कि विचारधारा बीते दशकों में जितनी बड़ी ताकत थी, आज उससे कहीं ज्यादा मजबूत ताकत बन गई है. सिवाए इसके कि यह केवल भाजपा के मामले में कारगर दिखती है. आप पसंद करें या नापसंद, इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि यह पार्टी अपने मूल सिद्धांत के और ज्यादा करीब आई है.दूसरी ओर, कई नेताओं और उनकी पार्टियों ने विचारधारा के मामले में उदार इन्हीं दशकों में काफी प्रगति की है, जब कि सत्ता के लिए सिद्धांतों और दार्शनिक प्रतिबद्धताओं की अदला-बदली की जाती रही है.महाराष्ट्र की राजनीति में पिछले चार वर्षों में जो उलटफेर हुए हैं वे हमें शायद यह बताते हैं कि वो दौर अब बीत चुका है. एकनाथ शिंदे वाली शिवसेना और अजित पवार वाली एनसीपी सत्ता की अपनी छोटी पाली खेल कर खुश हो सकती है, लेकिन चुनावी और राजनीतिक दृष्टि से अब वे उन शक्तियों का प्रतिनिधित्व करती हैं जिनका तेज़ी से पतन हो रहा है. यह मुख्यतः लेन-देन की राजनीति करने वाली इन दो पार्टियों के खात्मे की शुरुआत हो सकती है. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि शिवसेना और एनसीपी मुख्यतः एक राज्य में सीमित पार्टियां हैं, क्योंकि इन दो में से एक-न-एक पार्टी पिछले 25 वर्षों में दिल्ली की गद्दी पर बैठे गठबंधनों में शामिल रही है. मोदी से पहले और खासकर 2009 के चुनावों के बाद के दौर में हममें से कई लोगों (जिनमें यह लेखक भी शामिल रहा और खुद को अपराधी मानता है) ने भारतीय राजनीति में विचारधारा के अंत का स्वागत करने में देरी नहीं की थी. हमारा निष्कर्ष था कि युवा वोटरों की बढ़ती तादाद वोटिंग मशीन का बटन दबाते हुए सिर्फ यही सोचती होगी कि इसमें उसके लिए क्या है? मोदी ने 2014 में अपना चुनाव अभियान शुरू करते हुए इसी बात को ध्यान में रखा, लेकिन उनका ज्यादा ज़ोर उग्र, भावनात्मक, हिंदुत्व आधारित राष्ट्रवाद पर था. पाकिस्तान की ओर बार-बार इशारे तो थे ही, मुसलमानों की ओर भी परोक्ष संकेत थे, खासकर ‘पिंक’ क्रांति (मांस निर्यात के लिए चुनावी जुमला) पर सवाल भी उठाए गए. दूसरी ओर, कांग्रेस के नेतृत्व में मोदी के विरोधी ‘मनरेगा’ और अधिकारों पर आधारित कानूनों तथा जनकल्याणवाद की बातें करके लेन-देन वाली राजनीति पर ज़ोर देते रहे. 2019 तक मोदी ने और सख्त तेवर अपनाया; पुलवामा/बालाकोट मामलों पर राष्ट्रवाद के उभार के बाद कांग्रेस ने भ्रष्टाचार के आरोपों (राफेल मामले में ‘चौकीदार चोर है’ का नारा देकर) और ‘न्याय’ परियोजनाओं के तहत मुफ्त सुविधाएं देने पर ज़ोर देकर लड़ने की कोशिश की, लेकिन विचारधारा को लेकर स्पष्ट द्वंद्व अभी भी नहीं पैदा किया जा सका था. बीजेपी से लड़ते हुए जब कांग्रेस ही हाथ-पैर मार रही थी, तब छोटी और क्षेत्रीय पार्टियों की दुविधा आसानी से समझी जा सकती है.अलग दिखने की उनकी कोशिश या तो मुसलमानों की सुरक्षा पर आधारित थी, या मतदाताओं को मुफ्त सुविधाएं देने पर. द्रविड़ मुनेत्र कषगम (डीएमके) या केरल में वाम दलों के रूप में कुछ क्षेत्रीय ताकतों को छोड़ दें तो विचारधारा के नाम पर चुनाव भाजपा के सिवा किसी और पार्टी ने नहीं लड़ा और इसने मोदी का काम आसान बना दिया.इस मुद्दे को हम अक्सर उठाते हैं क्योंकि यह 1984 के बाद की हमारी राजनीति का केंद्रीय पहलू है. 1984 को हम कट-ऑफ साल इसलिए मानते हैं क्योंकि उसी साल राजीव गांधी ने 415 का जनादेश हासिल किया था. इसके बाद भारत पर किसने राज किया यह इस एक बात से तय होता रहा कि धर्म को जिसने एकजुट किया उसे बांटने में जाति का इस्तेमाल करने में कौन कितना सफल रहा. या जाति ने जिसे बांट दिया था उसे धर्म का इस्तेमाल करके एकजुट करने में दूसरा पक्ष कितना सफल रहा. 1989 में कांग्रेस के पराजय के बाद, शुरू के 25 सालों तक जाति की ताकतों की जीत होती रही. उसके बाद मोदी का युग आया.

उन 25 वर्षों में ही तथाकथित सेक्युलर राजनीति दिग्भ्रमित हो गई और उसने अपना व्यापक वैचारिक खूंटा गंवा दिया. बीजेपी का मुकाबला करने में वह किसी व्यापक सिद्धांत पर टिके रहने की जगह मुस्लिम वोट जीतने के उपयोगितावादी उपक्रम में जुटे पक्ष की तरह नज़र आने लगी.इस तरह, ‘सेक्युलर वोट’ मुस्लिम वोट का पर्याय बन गया. इसके कारण स्थानीय स्तरों पर खींचतान भी शुरू हुई, जैसे उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाजन पार्टी (बसपा) के बीच हुई; पश्चिम बंगाल में कांग्रेस, वाम दलों और तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के बीच हुई; असम में असदुद्दीन ओवैसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) और बदरुद्दीन अजमल की ऑल इंडिया यूनाईडेट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआईयूडीएफ) जैसी नई मुस्लिम ताकतों के बीच हुई. महाराष्ट्र को छोड़ बाकी अधिकतर राज्यों में एनसीपी ने भी चुनावों में अपने उम्मीदवार खड़े करने शुरू किए — खासकर 2017 के गुजरात चुनावों में, जो एक समय भाजपा के लिए अनिश्चित दिख रहा था.
इस बीच भाजपा खुद को और तेज़तर्रार, सुपरिभाषित और बेबाक हिंदू राष्ट्रवादी दल के रूप में निखारती रही. उसका नारा ‘सबका साथ, सबका विकास’ उसके इस नये आत्मविश्वास को रेखांकित करता रहा कि हालांकि, वो जानती है कि मुसलमान उसे वोट नहीं देते, फिर भी वह उन्हें परेशानी में नहीं डालेगी. इसने राष्ट्रीय राजनीति को एकपक्षीय तो बनाया, लेकिन कई राज्यों में बीजेपी स्थानीय/क्षेत्रीय ताकतों को हराने में नाकाम रही.केरल और तमिलनाडु को, जो भाजपा के लिए उतने महत्व नहीं रखते, छोड़कर बाकी अधिकतर राज्यों में उसे चुनौती एक नेता या एक परिवार वाली पार्टी से मिली. इनमें आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल, दिल्ली, बिहार, ओड़िशा और महाराष्ट्र भी शामिल हैं, लेकिन अब उनमें से कई पार्टियों को पुनर्विचार करने की ज़रूरत है. परिवारों को तोड़ा जा सकता है, उदाहरण के लिए भतीजे-चाचाओं को दगा दे सकते हैं, वफादारों को लुभाया जा सकता है या एजेंसियों का इस्तेमाल करके धकियाया जा सकता है और वह सब वैसी ही कोई सफाई दे सकते हैं जैसी प्रफुल्ल पटेल ने अपने फैसले के लिए दी है. इस शुक्रवार को नई दिल्ली के नेहरू स्मारक पुस्तकालय में पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के जीवन पर ‘लाल बहादुर शास्त्री: द मैन हू डाएड टू सून’ शीर्षक व्याख्यान देते हुए संपादक तथा लेखक टी.एन. नायनन ने एक महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया. शास्त्री की असमय मृत्यु नहीं होती तब क्या होता, इस विषय पर विचार करते हुए उन्होंने कहा कि एक संभावना तो यह थी कि कांग्रेस नहीं टूटती, या इंदिरा गांधी को छुट्टी दी जाती और उनकी जगह यशवंत राव चह्वाण उत्तराधिकारी बनते.इससे यह निष्कर्ष भी निकलता है कि 1969 में श्रीमती गांधी ने पार्टी को न तोड़ा होता तो वह वामपंथी दिशा की ओर न मुड़तीं, जैसा कि उन्होंने मोड़ा. अपनी पार्टी के पुराने नेताओं से मुकाबला करने के लिए उन्होंने ऐसा किया. मेरे विचार से यह किसी वैचारिक आस्था के कारण नहीं किया गया था बल्कि यह सुविधा की राजनीति थी. पुराने रूढ़िपंथी नेताओं को शिकस्त देने के लिए ‘प्रगतिशील, युवा वामपंथी’ विचारों का सहारा लेने से बेहतर क्या हो सकता था! और उन्होंने यह पूरे शान से किया.लेकिन इस प्रक्रिया में कांग्रेस के पास वह विचारधारा बची रही जिसे उसके कार्यकर्ताओं, और उनके साथ जुड़े शीर्ष नेतृत्व ने स्वीकार नहीं किया था. कांग्रेस को कभी भी एक क्रांतिकारी पार्टी के रूप में तैयार नहीं किया गया. शायद इसीलिए यह पार्टी उसके बाद लगभग हर पांच साल पर टूटती रही. इससे टूट कर बने अधिकतर गुट क्षेत्रीय या परिवार केंद्रित ताकतें बन गईं, चाहे वह एनसीपी हो या मेघालय के संगमा की पार्टी या ममता की तृणमूल या आंध्र की वाईएसआरसीपी. दूसरी ओर, भाजपा ने अपनी वैचारिक और राजनीतिक संबद्धता बनाए रखी. कुछ नेता पार्टी से निकले मगर फिर लौट आए, जैसे बी.एस. येदियुरप्पा, कल्याण सिंह. जो नहीं लौटे वे धीरे-धीरे लुप्त हो गए, जैसे शंकर सिंह वाघेला. राष्ट्रीय राजनीति की आज जो दशा है उसकी यही व्याख्या है. यही महाराष्ट्र का संदेश है. कांग्रेस अगर अपनी ताकत बढ़ाए और एक आधुनिक विचारधारा विकसित कर सके तो हम फिर से दो दलीय राजनीति की ओर मुड़ सकते हैं.

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