बिहार विधानसभा चुनावों (Bihar Assembly Elections 2020) में एआईएमआईएम (AIMIM) की पांच सीटों पर जीत मुस्लिम राजनीति में बदलाव के संकेत दे रही है। मुस्लिम आबादी की बहुलता वाली इन सीटों पर मतदाताओं ने भाजपा को हराने वाले दल को वोट देने की बजाय मुस्लिमों की पार्टी को तरजीह दी है।
चुनाव लोकसभा के हों या विधानसभा के लंबे समय से यह रुझान दिखा है कि मुस्लिम वोट (Muslim Vote) भाजपा के खिलाफ जाते हैं। राजनीतिक विश्लेषण बताते हैं कि मुस्लिमों के वोट उस दल को पड़ते हैं जो भाजपा के मुकाबले में मजबूती से खड़ा हो। लेकिन बिहार के सीमांचल में पांच सीटों पर यह सोच नहीं दिखी है। एआईएमआईएम जो उस क्षेत्र की जानी-पहचानी पार्टी भी नहीं है, उसने पांच सीटें जीतकर मुस्लिम राजनीति के परंपरागत रूप को तोड़ा है।
क्या यह जीत इस बात का रुझान है कि मुस्लिम वोटर चाहते हैं कि मुस्लिमों की आवाज को उठाने वाली पार्टी को पहली प्राथमिकता दी जाए। भले ही उसकी सरकार बनाने में कोई हिस्सेदारी हो या नहीं। एआईएमआईएम के महाराष्ट्र में भी लोकसभा और विधानसभा की सीटें जीतना क्या यह संकेत नहीं है ? तो क्या इसका मतलब यह समझा जाना चाहिए कि एमआईएम के लिए देश के तमाम राज्यों में अपनी राजनीतिक जमीन तैयार करने की संभावनाएं हैं। क्योंकि अनेक राज्य हैं जहां मुस्लिम आबादी ज्यादा है।
राजनीतिक विश्लेषक अभय कुमार दुबे इससे सहमत नहीं हैं। वे कहते हैं कि एआईएमआईम तेलंगाना की पार्टी है लेकिन वह हैरादाबाद से बाहर नहीं निकलती है। वह पूरे सूबे में चुनाव नहीं लड़ती है। दूसरे, मुस्लिम वोटर का व्यवहार क्या होगा, यह हर राज्य हर सीट पर अलग-अलग हो सकता है। बिहार में पसमांदा मुस्लिमों के वोट जदयू को भी मिले हैं। लेकिन तर्क कि भाजपा को हराने वाले दल को ही मुसलमान वोट देंगे यह जरूरी नहीं है। बल्कि यह राजनीतिक विश्लेषकों की सोच है। स्थानीय उम्मीदवार कैसा है, यह भी एक कारण हो सकता है।
उन्होंने कहा, जहां तक एआईएमआईएम का प्रश्न है मुस्लिमों का एक बड़ा तबका ओवैसी की भाषा को पसंद करता है, इसलिए भी उन्हें इसका फायदा मिल सकता है। निकट भविष्य में पश्चिम बंगाल में चुनाव होना है जहां मुस्लिम आबादी भी ज्यादा है। ओवैसी वहां चुनाव लड़ने का ऐलान भी कर चुके हैं। इसलिए वहां पार्टी के प्रदर्शन पर नजर रहेगी। लेकिन जहां ओवैसी सीटें जीतेंगे, वहां भाजपा को फायदा होगा, वे इस तोहमत से बच नहीं पाएंगे।