शारीरिक दूरी बरतने के प्रति उदासीनता असली अपराधी है। कोलकाता से लेकर बेंगलुरु तक के बाजारों से भीड़ की तस्वीरें आ रही हैं, जो आशंकाओं को जन्म दे रही हैं। यह भीड़ अत्यधिक संक्रामक साबित हो सकती है। इसमें कोई शक नहीं की भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य जागरूकता बढ़ी है। हाथ धोने और मास्क पहनने के बारे में सब लोग जानते हैं।
सरकार के संचार माध्यमों और दिशा–निर्देशों ने यह कामयाबी हासिल की है, लोग मास्क पहनते हैं, लेकिन मुश्किल यह है कि मुंह और नाक पर मास्क पहनने की जरूरत पर किसी ने जोर नहीं दिया है। जुगाड़–शैली में ज्यादातर लोग मुंह के नीचे या गर्दन के नीचे मास्क बांधे या लटकाए रह रहे हैं। अपरिहार्य फोन संदेशों पर भी लोगों को यह नहीं बताया गया है कि वातानुकूलित कार्यालय या घर में बंद रहना ज्यादा जोखिम भरा है और एक कमरे में सभी खिड़कियां खुली रखकर पंखे की हवा में रहने में कम जोखिम है।
अभी भी एक पार्क में या छत पर दोस्तों से मिलने के बजाय कमरे में मिलना खतरनाक हो सकता है। दुनिया भर में कोरोना की दूसरी लहर चल रही है, हम सावधान न हुए, तो एक वैक्सीन के आने के बाद भी इस वायरस के खिलाफ हमारी लड़ाई कमजोर रहेगी। पहली पीढ़ी के वैक्सीन के 100 प्रतिशत कारगर होने की उम्मीद नहीं है। लंबी सर्दियों के उस पार बढ़ते संक्रमण से वैक्सीन अभियानों को जूझना पड़ेगा। पिछले महीनों के अनुभव यही बताते हैं कि जैसे ही वैक्सीन का आगमन होगा, शारीरिक दूरी के प्रति उदासीनता बढ़ जाएगी।
पूर्वी एशिया के देशों में लोग पिछले एक–डेढ़ दशक से मास्क पहनने के रिवाज का पालन कर रहे हैं। भले ही उन्हें सामान्य रूप से जुकाम हुआ हो, लेकिन वे मास्क पहनते हैं। और, इसलिए यह महामारी कोरिया से ताइवान और यहां तक कि बहुत कम विकसित वियतनाम में ज्यादा नहीं फैली है। ये कई वजहों से चमत्कारी एशियाई अर्थव्यवस्था वाले देश कहलाते हैं। यहां सामाजिक अनुशासन पुख्ता और सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था बेहतर है।