कोरोना ने हर इंसान के चरित्र को पूरी तरह से सार्वजनिक कर दिया है। कैसे इंसान की खाल में छिपे लालची भेड़ियो ने हर सांस की कीमत तय कर दी है। हरगिज नहीं भूलेंगे कैसे पल्स ऑक्सीमीटर और ऑक्सीजन सिलिंडर से लेकर प्राणरक्षक दवाओं पर लूटपाट- कालाबाजारी का नंगा बाजार खड़ा हो गया। कुछ किलोमीटर के लिए एंबुलेंस का भाड़ा हजारों में वसूला जा रहा है। निजी अस्पतालों में वेंटिलेटर पर इलाज का खर्च बेहिसाब लाखों में पहुंच रहा है। पार्थिव शरीर के एंबुलेंस में रखने से लेकर शवदाह गृह में उतारने तक की कीमत वसूली जा रही है। इतना ही नहीं अंतिम यात्रा में कंधा देने के लिए, बल्कि परिजनों को प्लास्टिक में लिपटे मृतक के अंतिम दर्शन कराने के एवज में पैसे वसूले गए। ऐसा लग रहा है इंसानों की इस धरती पर पहली बार मौत का तांडव भी मुनाफे का धंधा बनकर सामने आया है। जहां कोई अपना जहां बेचकर सुहाग बचा रहा है कोई जेवर बेचकर। बाप ने जिस घर को बनाने में उमर गुजार दी वह उसे बेचकर वह अपने बेटे की सांसे खरीद रहा है। इतना ही नहीं अपनों को बचाने के लिए कई दवा खरीदने में बर्बाद हो गए। गैरत आती है ऐसे लोगों पर जो जहर बेचकर अपनी तिजोरी भर रहे हैं। याद रखना इंसानियत और मानवता का सौदा करने वालों बारी तुम्हारी भी आएगी। बचोगे तुम भी नहीं। तकलीफ इस बात की है ऐसे हालात में हमें जिस सरकार और सिस्टम की जरूरत थी वह जिंदा लाश निकली जिस पर पैर रखकर हमारे पास चिल्लाने के अलावा कोई चारा नहीं है। श्मशान में धधकती चिताओं की शृंखला, बाहर परिजनों के निष्प्राण शरीर लिए बेबस लोगों की लंबी कतार, हर पल गुजरती एंबुलेंस का दिल दहलाने वाला सायरन, अस्पतालों में उमड़ी भीड़, इस उम्मीद में कि सांस टूटने के पहले उनके प्रियजन को एक बेड मिल जाए, कैसे भी कोई वेंटिलेटर का इंतजाम कर दे, या एक ऑक्सीजन सिलिंडर ही दिला दे, ताकि जान बच सके। कहीं भी इलाज हो सके, घर में या बाहर, कार में, ठेले पर, चलती मोटरसाइकिल पर, फुटपाथ किनारे। कहीं एक बदहवास महिला ऑटोरिक्शा में अपने बेसुध पड़े पति को बचाने के लिए मुंह से मुंह में सांस देती हुई। कहीं एक मां के सामने उसका अबोध पुत्र अचेत गिरा हुआ। ये भयावह दृश्य हमें भले ही ताउम्र विचलित करें, इन्हें अपनी स्मृतियों से हमें तब तक ओझल नहीं होने देना चाहिए, जब तक हमें इस बात का एहसास न हो जाए कि हम इंसानी वायरसों को भी खत्म करने में कामयाब हो रहे हैं जिनके चलते ये हालात बने। साथ ही साथ बारम्बार ऐसे लोगों को नमन करना ना भूले जिन्होंने इस परीक्षा की घड़ी में मानवता की नि:स्वार्थ सेवा के लिए अपने आप को समर्पित कर दिया। किसी गुरुद्वारे ने ऑक्सीजन लंगर की व्यवस्था कर दी ताकि लोगों को अस्पताल में बेड मिलने तक उनकी सांसें महफूज रहें। कहीं कोई अपनी कार को एंबुलेंस बनाकर मरीजों को अस्पताल पहुंचाता रहा तो कोई अपने ऑटोरिक्शा को। किसी ने अनजान लोगों की जान बचाने के लिए अपनी महंगी गाड़ी बेचकर ऑक्सीजन सिलिंडर खरीदा तो कोई अपने बचपन के दोस्त को मौत के मुंह से बाहर लाने के लिए 1300 किलोमीटर की यात्रा कर सिलिंडर साथ लेकर पहुंचा।वैसे लोग जो मरीजों और उनके परिवार के अन्य सदस्यों के लिए सुबह–शाम खाने–पीने और दवाइयों की व्यवस्था करते रहे। सोशल मीडिया पर प्लाज्मा के लिए एक मदद की गुहार सुनते हजारों मदद के हाथ खड़े हुए। कोरोनो संक्रमित एक गर्भवती महिला, जिसके ट्विटर पर मात्र दस–पंद्रह फोलोवर थे, की सहायता के लिए हजारों लोग आगे आए। देश भर के लाखों चिकित्सक और अन्य स्वास्थ्यकर्मी घड़ी की सुइयों को देखे बगैर मरीजों की सेवा में दिन–रात जुटे रहे। ये सब ऐसे मानवता के मसीहा साबित हुए, जिन्होंने भरोसा दिलाया कि हम इस मुश्किल दौर से जल्द निकलेंगे।यह सच है कि आपदा कहकर नहीं आती। कैसे यह महामारी विकराल त्रासदी बन गई। अभी यह सोचने का वक्त नहीं है कि यह सब कैसे हुआ? क्या हम इस अदृश्य खतरे के प्रति लापरवाह हो गए या हमारे पास इससे निपटने के पर्याप्त साधन नहीं थे? इन बातों का निष्पक्ष मूल्यांकन तब होगा जब हम इस महामारी से उबर चुके होंगे। अभी हमें एकजुट होकर इससे लड़ना और जीतना है। हम जीतेंगे।