यूपी में बीजेपी का कमज़ोर प्रदर्शन

 योगी की ग़लती या केंद्रीय नेतृत्व की नाकामी


रणघोष खास. नितिन श्रीवास्तव की रिपोर्ट बीबीसी, साभार

गोरखपुर के बीचोंबीच क़रीब 50 एकड़ में बने गोरखनाथ मंदिर में एक बड़ा चिकित्सालय, आयुर्वेदिक औषधि केंद्र, संस्कृत विद्यालय और कई आधुनिक छात्रावास हैं.मंदिर के क़रीब ही एक पुराना लाल-गुलाबी रंग का दो मंज़िला मकान भी है जिसके पहले फ़्लोर पर मंदिर के महंत और सांसद अवैद्यनाथ एक कमरे में रहा करते थे.उनके न रहने के बाद मंदिर के प्रमुख महंत बने योगी आदित्यनाथ जो अपने गुरु के कमरे में शिफ्ट हो गए थे.पिछले हफ़्ते, 3 जून को उत्तर प्रदेश मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हमेशा की तरह तड़के सुबह उठकर, तैयार होकर, आवास के बग़ल में बने शक्तिपीठ मंदिर में पूजा करके वापस लौटे. फिर वे अपनी गोशाला गए और ये तय हुआ कि उसी दिन वे राजधानी लखनऊ लौट जाएँगे.आवास में एक लाल कक्ष है जिसमें वे बतौर सांसद लोगों से मुलाक़ात किया करते थे और सिलसिला आज भी जारी है.लाल कक्ष से गुज़रते समय एक पुराने कर्मचारी ने पूछा, “महाराज जी, कल आम चुनाव के नतीजे आ रहे हैं और उसके अगले दिन आपका जन्मदिन भी है. आपके दर्शन उसके बाद होंगे?”योगी आदित्यनाथ सिर्फ़ मुस्कुराते हुए आगे बढ़ गए. शायद उन्होंने सोचा भी नहीं होगा कि अगले कुछ दिन कितने ‘चुनौतीपूर्ण’ होने वाले हैं.

पलट गया पासा

चार जून के नतीजों ने तो सबको चौंका दिया. लोकसभा में पूर्ण बहुमत पाने के लिए 272 सीटें जीतनी पड़ती हैं और भाजपा अपने बूते इस आँकड़े तक पहुंचने से 32 सीटें पीछे रह गई. 80 लोकसभा सीटों वाले राज्य यूपी से बीजेपी को पिछली बार की तरह 60 से अधिक सीटों की उम्मीद थी लेकिन पार्टी बुरी तरह पिछड़ गई , समाजवादी पार्टी ने उससे अधिक सीटें जीत लीं जबकि बीजेपी को मात्र 33 सीटों से संतोष करना पड़ा.भाजपा-एनडीए गठबंधन को मिली 36 सीटें और कांग्रेस-समाजवादी पार्टी वाले विपक्षी इंडिया ब्लॉक की झोली में आईं 43 सीटें. भाजपा के लिए ये करारा झटका था क्योंकि पिछले चुनाव में एनडीए के पास 64 सीटें थीं.योगी आदित्यनाथ के सर पिछली लोकसभा और पिछली विधानसभा चुनावों में जीत का सेहरा बँध चुका था लेकिन नतीजे ने उन्हें भीतर से झझकोर दिया.सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने 37 और कांग्रेस के राहुल गांधी ने अपनी पार्टी के लिए 6 सीटें जितवा कर योगी को पछाड़ दिया है.

राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार वीर सांघवी के मुताबिक़, “मोदी की केंद्र सरकार से ज़्यादा भाजपा की राज्य सरकारों ने अल्पसंख्यकों को सीधे तौर से निशाना बनाया और ख़ास तौर से यूपी में जहां बुलडोज़र एक सरकारी प्रतीक बन गया. नए राम मंदिर वाले प्रदेश में ‘हिंदुत्व की राजनीति’ को सबसे करारा झटका लगा और जिस सपा पर भाजपा मुस्लिम-परस्त होने का आरोप लगाती रही है, उसी ने बहुसंख्यक हिंदू आबादी वाले प्रदेश में सपा को कहीं ज़्यादा वोट मिले. बीजेपी जिन सीटों पर हारी उनमें अयोध्या (फैज़ाबाद) भी शामिल है.”हक़ीक़त यही है कि 2019 के आम चुनावों में यूपी में भाजपा को 49.6% वोट मिले थे जो 2024 में गिर कर 41.4% पर आ चुका है.दूसरी हक़ीक़त ये भी है एनडीए सहयोगियों के साथ मिलकर भाजपा नेतृत्व वाली सरकार भी बन चुकी है और नरेंद्र मोदी ने लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री बनकर जवाहरलाल नेहरू के रिकॉर्ड की बराबरी कर ली है.

हार की ज़िम्मेदारी किसकी?

लखनऊ के हज़रतगंज स्थित भाजपा पार्टी कार्यालय का मंज़र 2014 से ही बदला हुआ है. ऊंची छतों, बड़े दरवाज़ों और कई जगह दीवार में सीलन वाली पुरानी इमारत ने कई बड़े मुक़ाम देखे हैं.

उस दफ़्तर ने 1990 से 2004 तक स्थानीय सांसद और बाद में प्रधानमंत्री रहे अटल बिहारी बाजपेयी की केंद्र सरकार, कल्याण सिंह और राजनाथ सिंह के नेतृत्व वाली प्रदेश सरकारें भी देखी हैं.

उस पुराने दफ़्तर ने 2004 में भाजपा सरकार की ‘इंडिया शाइनिंग’ के नारे वाली आम चुनावों में वापसी करने की नाकाम कोशिश भी देखी थी.2014 के बाद से इस दफ़्तर को एक नई शक्ल दी गई जब अमित शाह प्रदेश में भाजपा कैंपेन के इंचार्ज बने थे.उस आम चुनाव के चंद महीने पहले इसी नई शक्ल वाले दफ़्तर के पहले फ़्लोर पर एक ‘वार रूम’ भी बना था जो एक-एक बूथ की रिपोर्ट रखता था.चंद वर्षों में इस नए दफ़्तर ने योगी आदित्यनाथ को नया मुख्यमंत्री बनते भी देखा. लेकिन अब क़रीब एक दशक के बाद जैसे-जैसे 4 जून, 2024 की सुबह रुझान आते गए, इस दफ़्तर ने सन्नाटे और नाकामी को फिर महसूस किया.गोरखपुर में राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर महेंद्र कुमार सिंह को लगता है, “इस प्रदर्शन के पीछे एक बड़ा फ़ैक्टर था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं की कम भागीदारी और भाजपा के ग्रासरूट कार्यकर्ता का घटा हुआ मनोबल क्योंकि ज़्यादातर ने पीएम मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में ख़ुद को अलग-थलग महसूस किया.”इस नई शक्ल वाले दफ़्तर में मुझे पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनाव के रुझान आते ही एक नई चीज़ दिखने लगी थी. समर्थक इसके गेट पर जीत का जश्न मनाने बुलडोज़रों में बैठकर पहुँचते थे.

इस चुनाव प्रचार में भी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कई दफ़ा अपने भाषणों में ‘अपराधियों और गलती करने वालों पर बुलडोज़र के इस्तेमाल’ की बात दोहराई थी.

23 मई, 2024 को बिहार में एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने मंच से कहा, “मैं आप सबका धन्यवाद दूँगा कि आपने मेरे आने से पहले यहां बुलडोज़र मँगवा लिया. ये माफ़िया और आतंकवादियों का सबसे उचित इलाज है.”इस स्पीच के एक हफ़्ते पहले ही कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने चुनाव आयोग से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस बयान पर संज्ञान लेने की गुज़ारिश की थी जिसमें पीएम ने कहा था, “विपक्षी कांग्रेस और समाजवादी पार्टी को योगी आदित्यनाथ से ट्यूशन लेने की ज़रूरत है कि बुलडोज़र कहां चलाया जाना चाहिए.” साफ़ है कि मतदाताओं ने न्यायिक प्रक्रिया पूरी होने से पहले ही किसी के घर या ठिकाने पर बुलडोज़र के ज़रिए बल प्रयोग की नीति को नकार दिया है.

टिकट किसने बाँटे

यूपी चुनावों को कई दफ़ा कवर करने वाली वरिष्ठ पत्रकार निधि राज़दान के मुताबिक़, “अबकी बार 400 पार और मोदी की गारंटी वाले माहौल में यूपी में आरएसएस कैडर ने अपने को अलग-थलग महसूस किया.”निधि कहती हैं, “टिकट वितरण में स्थानीय लीडरशिप से ज़्यादा केंद्रीय लीडरशिप का रोल दिखा जो उल्टा साबित हुआ. इस तरह की भी अपुष्ट खबरें आती रहीं कि आगे चलकर भाजपा योगी को बदल भी सकती है जबकि ख़ुद योगी और पीएम भाषणों में बुलडोज़र की बातें दोहरा रहे थे.”स्थानीय मीडिया में आम नैरेटिव यही चलाया जा रहा था कि ‘कड़क मुख्यमंत्री’ योगी आदित्यनाथ के प्रशासन से ज़्यादातर लोग खुश हैं.लेकिन हक़ीक़त ये रही कि पड़ोसी राज्यों- मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, दिल्ली, बिहार और झारखंड- में बेहतरीन प्रदर्शन करने वाली भाजपा अपने ‘गढ़’ यूपी में ही सिमट गई.उत्तर प्रदेश का लंबा दौरा करके लौटने वाली वरिष्ठ पत्रकार सबा नक़वी को लगता है, “किसी न किसी पर तो ब्लेम आना ही था. दबे स्वर में सही लेकिन इस वक़्त योगी आदित्यनाथ को यूपी में ख़राब प्रदर्शन के लिए ज़िम्मेदार बताया जा रहा है.”

पिछले दो विधानसभा चुनावों में भाजपा के टिकट पर उत्तर प्रदेश में जीत हासिल कर चुके एक दलित नेता ने नाम ज़ाहिर न करने की शर्त पर बीबीसी को बताया, “यूपी की 80 सीटों में से कम-से-कम 25 सीटों पर उम्मीदवार हमारे केंद्रीय नेतृत्व ने चुने जबकि योगी किसी और को लड़ाना चाहते थे. अखिलेश यादव ने इस बार कैंडिडेट सेलेक्शन पर ज़्यादा ध्यान दिया और टिकट बाँटने में चाणक्य वाली भूमिका निभाई.”

अब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और भाजपा के शीर्ष नेतृत्व में सीट बंटवारे को लेकर जो भी ‘मतभेद’ रहे हों, इस बात को ध्यान में रखने की ज़रूरत है कि विपक्षी इंडिया ब्लॉक गठबंधन ने अपने कई ‘क़रीबियों’ को भी मना करते हुए कुछ टिकट ऐसे दिए जो तुरुप का पत्ता साबित हुए.

मिसाल के तौर पर सपा के अखिलेश यादव का सिर्फ़ पांच यादव कैंडिडेट को टिकट देना- भले ही वे सभी उनके परिवार के हों- या फिर सिर्फ़ पांच-छह मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट देना इस बात का साफ़ इशारा है कि वे अपनी गणित बैठाकर ही मैदान में उतरे थे.यानी इंडिया ब्लॉक ने ओबीसी-दलित कार्ड को जितनी बेहतरीन तरीक़े से खेला, उसे भाजपा ने समझने में देर कर दी.इउतर प्रदेश सरकार के एक वरिष्ठ प्रवक्ता ने नाम ज़ाहिर न किए जाने की शर्त पर बताया, “विपक्ष लोगों को ये बताने में लगा रहा कि अगर भाजपा सरकार आई तो संविधान बदल दिया जाएगा, एक नए भारत का निर्माण होगा, आरक्षण ख़त्म कर दिया जाएगा. इसको पहले चरण के मतदान में ही पकड़ने की ज़रूरत थी लेकिन हुआ उसके उलट.”