अपने परिवार की शादियों में लेन- देन खत्म कर दीजिए, महिला दिवस मनाने की जरूरत नहीं पड़ेगी
–महिला दिवस मनाने एवं मुख्य अतिथि बनने का अधिकार उसे हो जो खुद में उदाहरण हो। ऐसा नहीं कर पा रहे हैं तो इस दिन की हैसियत ब्यूटी पार्लर से निकलने वाली उस सुंदरता की तरह है जो असली चेहरे से मेल नहीं खाती है।
रणघोष खास. सुभाष चौधरी
मंगलवार को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया। यह दिन नारी सम्मान- समानता- अधिकार जैसे गौरवशाली शब्दों के रास्ते बेहतर बदलाव का अहसास कराता है। अगले दिन ये शब्द वापस अपने ठिकानों पर लौटना शुरू हो जाते हैं। कभी सोचा कि यह दिन मनाने की जरूरत क्यों पड़ रही है। क्या अपने आप से सवाल किया कि महिला की कोख से जन्मीं बेटी बड़ी होकर अनेक किरदारों से गुजरते हुए जब मां बनती है। ऐसा अचानक क्या हो जाता है कि यहीं मा अपने बेटे की शादी के समय बेटी के रूप में आ रही बहू के साथ ऐसा गिरा हुआ व्यवहार करने लगती है मानो वह शादी नहीं सौदा कर रही हो। रिश्ता करते समय शादी से पहले ओर बाद तक जीजा- फूफा, बड़े बुजुर्गो के नाम पर शगुन- नेग बताकर बंद लिफाफों से वसूली शुरू हो जाती है। इन दिनों हो रहे रिश्तों में शादी से पहले ही लेन देन का अलग अलग टेंडर जारी हो जाता है। रीति रिवाज– परपंरा का नाम देकर कितने लिफाफे लड़की वालों को देने हैं की सूची बनना शुरू हो जाती है। लड़के वालों के कद के हिसाब से लिफाफे में नगदी का मापदंड तय किया जाता हैं। जितना भारी लिफाफा होगा लड़के वालों के लिए लड़की लक्ष्मी का रूप होगी। वजन उम्मीद से कम हुआ तो यही लड़की अचानक बोझ व रिश्ता बेमेल लगने लगेगा। लेन- देने के इस खेल में लड़की के माता-पिता पूरे समय डरे सहमें रहते हैं कि कोई नाराज नहीं हो जाए। महिला दिवस मनाने वाली महिलाओं में ऐसी कितनी है जो खुद पर गर्व महसूस करती है कि बहू आने पर उसने बजाय उसने उसके परिजनों से लेने के देने की परपंरा शुरू की हो। बहू को बेटी की तरह माना हो। शादी के नाम पर तरह तरह की वसूली करने वाले क्या यह साबित कर सकते हैं कि ऐसा किस धर्म या शास्त्र में लिखा है कि लड़की के परिजन ताउम्र लड़के वालों को किसी ना किसी बहाने से आर्थिक मदद देते रहेंगे। अब तो कुछ समय से रिश्ता तय करते समय लड़के वालों ने बेहद चालाकी से अपनी सामाजिक छवि बचाने के लिए एक नया ट्रेंड चला रखा है। रिश्ता होते ही गर्व के साथ हुंकार भरते हं कि हमारी कोई डिमांड नहीं है। उसके बाद धीरे धीरे फरमाइश शुरू हो जाती है। शादी शानदार तौर तरीकों से होनी चाहिए। लाखों रुपए के पंडाल में सैकड़ों तरह के व्यंजन हो, बारातियों का स्वागत स्वर्गलोक में घूमते देवी देवताओं की तरह हो। स्टेज ऐसा हो मानो किसी महाराजा का सिंहासन हो। इस तरह शादी होने तक लड़की के परिजनों से पानी की तरह पैसा खर्च करवा अंत में वे बिना दहेज की शादी का लेबल लगा अपने छिपे एजेंडे को पूरा कर लेते हैं। उसके बाद हम जैसे पत्रकार बिना दहेज के शादी की खबर बनाकर लड़का पक्ष को समाज में महानायक का दर्जा दिला देते हैं। यह ड्रामा व पांखड अब रूटीन हो चला है। इसलिए महिला दिवस मनाने एवं मुख्य अतिथि बनने का अधिकार उसे हो जो खुद में उदाहरण हो। ऐसा नहीं कर पा रहे हैं तो इस दिन की हैसियत ब्यूटी पार्लर से निकलने वाली उस सुंदरता की तरह है जो असली चेहरे से मेल नहीं खाती है।