हांफते-हांफते जो हमें छोड़ गए… पढ़ें, परिजनों की जुबानी दर्द की दास्तां
“अप्रैल में बांध टूटा और समूचा देश ऑक्सीजन के संकट से घिर गया और पूरा स्वास्थ्य ढांचा चरमरा गया”
सावधान! विशेषज्ञों ने पिछले नवंबर में ही चेताया था कि महामारी की बेहद खतरनाक लहर बड़े वेग से आने को है। उनकी सलाह थी कि आपात स्थिति के लिए मेडिकल ऑक्सीजन की पर्याप्त व्यवस्था करें। लेकिन उनकी चेतावनी अनसुनी कर दी गई। नेताओं ने बौड़म-से भरोसे से वादा किया कि कोविड तो हरा दिया गया और लोग भी भोलेपन में इस पर भरोसा कर गए। आखिर अप्रैल में बांध टूटा और समूचा देश संकट से घिर गया। पूरा स्वास्थ्य ढांचा चरमरा गया, लेकिन जिस चीज की भारी किल्लत दूसरी लहर की भयावह त्रासदी का चश्मदीद गवाह बन गई, वह थी ऑक्सीजन और उसे लाने वाले सदाबहार सिलिंडरों की डरावनी कमी। लोग एक अदद सांस के लिए हांफते रहे; कुछ तो हांफते-हांफते दम तोड़ गए और अपने परिजनों को आखिरी दर्दनाक पलों की याद में तड़पते छोड़ गए। यहां हम उन नौ पीडि़तों की कहानियां बता रहे हैं, जो समय पर ऑक्सीजन मिल जाती तो आज जिंदा होते। उनकी आखिरी, दिल दहला देने वाली कराहें हमेशा के लिए निष्ठुर लापरवाही के खिलाफ सबक होनी चाहिए।
रमन दुग्गल
‘ मम्मी चली गई!’
राजधानी दिल्ली के विवेक विहार की निवासी 54 वर्षीय रमन दुग्गल ने 10 अप्रैल को पहली बार कोरोना वायरस का टीका लगवाया था। अगले ही दिन उन्हें बुखार हो गया, परिवारवालों को लगा कि यह टीके का सामान्य असर है। लेकिन जब बुखार अगले सप्ताह भी जारी रहा तो उनके चिंतित बच्चों ने उन्हें अस्पताल में दाखिले की बेतरह कोशिश की। आखिर 17 अप्रैल को उन्हें गुप्ता मल्टीस्पेशियलिटी अस्पताल में बेड मिला। उन्हें दो दिनों तक जनरल वार्ड में रखा गया। ऑक्सीजन स्तर गिरा तो आइसीयू में भेजा गया। उनके बेटे करण दुग्गल बताते हैं, ‘‘हर दिन हमें अस्पताल से फोन आते थे कि ऑक्सीजन का इंतजाम करें। मैं और मेरी बहन कोविड से पीड़ित थे और ऑक्सीजन सिलिंडर की तलाश में दौड़-भाग करते रहे।’’
23 अप्रैल की रात, अस्पताल ने सभी रोगियों के रिश्तेदारों को एसओएस भेजा कि उनका ऑक्सीजन रिजर्व समाप्त होने वाला है। दुग्गल परिवार ने ऑक्सीजन के लिए हर जगह हाथ-पैर मारा लेकिन सब बेकार था। करण कहते हैं, ‘‘मुझे अंदाजा नहीं था कि अगले दिन दुख का पहाड़ टूटने वाला है। उस सुबह मेरे मुंह से सिर्फ यही निकला कि मम्मी चली गई।’’ आज तक अस्पताल ने रमन की मौत का आधिकारिक कारण नहीं बताया कि ऑक्सीजन की कमी से उनकी जान गई थी।
सरस्वती बिष्ट
“मम्मी बादलों पर गई है”
हर कोई खतरे को पहले भांप सकता था। 11 साल के एक मानसिक विकलांग बेटे और आठ और छह साल की दो बेटियों की मां, 39 साल की सरस्वती बिष्ट दिल्ली के सोनिया विहार में रहती थीं। अप्रैल के आखिर में उन्हें कोविड हुआ और एक मई को उन्होंने अपने भाई दीपक को बताया कि वे सांस नहीं ले पा रही हैं। दीपक ने बवाना में अपने एक दोस्त की मार्फत खाली सिलिंडर की व्यवस्था की। उस वक्त यह खाली सिलिंडर भी भरे से कुछ कम कीमती नहीं था। रात 8 बजे से अगले दिन सुबह 11 बजे तक दीपक लाइन में लगकर बवाना के एक प्लांट में सिलिंडर भरवाने का इंतजार करते रहे। उन्हें कहा गया कि उनकी बारी एक दिन बाद आएगी। दीपक कहते हैं, “सचमुच मैंने वहां हर जगह भीख मांगी पर किसी ने मदद नहीं की।” इस बीच सरस्वती की स्थिति बदतर होती गई। दीपक और उनके चचेरे भाई अब अस्पताल में बिस्तर तलाशने लगे। उन लोगों ने आठ अस्पतालों में संपर्क किया और आठों जगह उन्हें निराशा हाथ लगी। इस बीच सरस्वती को लग रहा था जैसे उनकी उर्जा खत्म होती जा रही है। वह लगातार गुहार लगा रही थीं, “मुझे एडमिट करा दो।” अंतत: दीपक की खोज गुड़गांव के मेट्रो अस्पताल पर जाकर खत्म हुई जिसने जगह का वादा किया। लेकिन भाग्य ने फिर धोखा दिया। कुछ घंटों के बाद ही, अस्पताल के स्टाफ ने कहा, “हमारे पास ऑक्सीजन और बिस्तर नहीं है, आपको मरीज को ले जाना पड़ेगा।” अब भी रोते हुए दीपक याद करते हैं, “पूरी रात हम उसे एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल ले गए। किसी ने भी मदद नहीं की। अगले दिन सांसों के लिए संघर्ष करते हुए वह हमें छोड़ कर चली गई।” सरस्वती का बेटा इस त्रासदी को समझ नहीं सकता। उसकी छोटी बहनें भी अभी इस नुकसान को नहीं समझतीं। वे आश्वस्त भाव से बस इतना ही कहती हैं, “मम्मी बादलों पर गई है।” सरस्वती की मृत्यु के बाद भी नियति का क्रूर मजाक जारी रहा। दीपक बताते हैं, “हम उन्हें श्मशान घाट ले जाने के लिए एंबुलेंस का इंतजार करते रहे लेकिन उसकी व्यवस्था नहीं हुई। अंत में हमने मदद की उम्मीद में पुलिस को फोन किया।” जो हुआ वो चौंकाने वाला और पुलिस की क्रूरता का परिचायक था। सोनिया विहार थाने से दो पुलिसकर्मी उनके घर पहुंचे और चिल्लाते हुए पूछा, “हमको यहां क्यों बुलाया? अगर तुम लोगों को उनका अंतिम संस्कार करना होता, तो तुम लोग चले जाते। अब हम शव को अपने कब्जे में ले रहे हैं।” गिड़गिड़ाने पर भी वे लोग नहीं माने और शव को पोस्टमार्टम के लिए ले गए। सरस्वती का शव वापस पाने के लिए उनके पति ने अगले दिन घंटों मिन्नतें कीं। उनकी मृत्यु के 28 घंटे बाद परिवार उनका अंतिम संस्कार कर पाया।