रथ, योद्धा, कब्रें — एएसआई को आखिरकार सबूत मिल गया कि आर्य भारत में आक्रमणकारी नहीं थे

एएसआई के अनुसार, मंजुल की टीम द्वारा खुदाई की गई 10 कब्रों के साथ मिले रथ, प्राचीन भारतीय इतिहास और वैदिक संस्कृति के बीच लुप्त कड़ी हो सकते हैं.


रणघोष खास. कृष्ण मुरारी 
प्राचीन भारतीय इतिहास के सबसे गूढ़ और सबसे गर्म बहस वाले सिद्धांतों में से एक 2000-1500 ईसा पूर्व के आसपास आर्य आक्रमण का सिद्धांत है. भाजपा और आरएसएस ने हमेशा दावा किया है कि भारत आर्यों का उद्गम स्थल था – वह जनजाति जो भारत में रथ और घोड़े लाए और वेदों की रचना की. कुछ जैविक साक्ष्य भी इस संभावना की ओर इशारा करते हैं। सिनौली में लगभग 4,000 साल पुराने पुरातात्विक स्थल से हाल की खुदाई, जहां 1900 ईसा पूर्व के आसपास एक योद्धा जनजाति रहती थी, इस तर्क को और मजबूत करती है, कम से कम भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के अनुसार.दिल्ली में राष्ट्रीय संग्रहालय में एएसआई के संयुक्त महानिदेशक संजय कुमार मंजुल ने कहा, “पश्चिमी विद्वानों ने प्रस्तावित किया कि रथ और हथियार आर्य आक्रमण के साथ भारत आए, जिसने समाज को बदल दिया. सिनौली उत्खनन पूरे एजेंडे को नकारता है, क्योंकि हमारे पास योद्धाओं, हथियारों और रथों के दफन के सबूत हैं जो स्वदेशी प्रकृति के हैं.” यह कार्यक्रम सिनौली की खुदाई: महान भारतीय योद्धाओं की कब्रों का खुलासा शीर्षक से एक व्याख्यान का हिस्सा था.ये उत्खनन उपमहाद्वीप में एक योद्धा जनजाति की बात सामने लाता है. इससे पता चलता है कि ये लोग कोई ‘प्रवासी’ नहीं थे – बल्कि हड़प्पा सभ्यता से अलग संस्कृति वाले स्वदेशी योद्धा थे, हालांकि वे लगभग उसी समय अस्तित्व में थे जब हड़प्पा सभ्यता का आखिरी दौर था. उनकी प्रथाओं की गूंज रामायण, महाभारत और वेदों जैसे प्राचीन हिंदू ग्रंथों में मिलती है.
महाभारत कोई मिथक नहीं
दिल्ली से 70 किमी दूर सिनौली में गंगा-यमुना दोआब की खुदाई 2005 में शुरू हुई थी लेकिन 13 साल से रुकी हुई थी.जब 2018 में खुदाई फिर से शुरू हुई, तो मंजुल ने तीन रथों का पता लगाया. अब, कार्बन डेटिंग से पता चलता है कि यह क्षेत्र भारतीय उपमहाद्वीप की सबसे प्रारंभिक योद्धा जनजातियों में से एक का घर था. और पुरातत्ववेत्ता अभी भी इसके रहस्यों से पर्दा उठा रहे हैं.एएसआई के अनुसार, मंजुल की टीम द्वारा खुदाई की गई 10 कब्रों के साथ मिले रथ, प्राचीन भारतीय इतिहास और वैदिक संस्कृति के बीच लुप्त कड़ी हो सकते हैं.मंजुल ने कहा, “सिनौली के साक्ष्य महाभारत, रामायण और वेद जैसे साहित्य से तुलनीय हैं.” उन्होंने कहा, “राम जैसे महान योद्धाओं का उल्लेख है, लेकिन इसका कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं था.” मंजुल जैसे पुरातत्वविदों के लिए, सिनौली भारत के साहित्य की सांस्कृतिक समझ के लिए महत्वपूर्ण है.राष्ट्रीय संग्रहालय के महानिदेशक बीआर मणि ने व्याख्यान के परिचय में कहा, “सिनौली पुरातत्व के इतिहास में एक नया अध्याय खोलता है.
युद्ध के रथ
2005 में पुरातत्वविद डीवी शर्मा इस खुदाई का नेतृत्व कर रहे थे और उन्होंने 116 कब्रगाहों की खोज की. 2018 में मंजुल और उनकी टीम ने दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व के ताबूतों, तांबे की ढालों और रथों का पता लगाया – ये सभी सिनौली जनजाति की योद्धा प्रकृति की ओर इशारा करते हैं. उन्हें हिल्ट वाले हथियार और यहां तक कि तांबे का हेलमेट भी मिला. धीरे-धीरे, उन्होंने ऊपरी गंगा-यमुना दोआब की इस जनजाति की संस्कृति को एक साथ जोड़ना शुरू किया.एएसआई के अनुसार, यह समुदाय हड़प्पा सभ्यता से अलग था, यह सिनौली में गेरू रंग के मिट्टी के बर्तनों (ओसीपी), तांबे के भंडार और दफन स्थलों की उपस्थिति के कारण साबित हो सकता है.मंजुल ने कहा, “यमुना बेल्ट में एक अलग तरह की संस्कृति है और सिनौली में 90 प्रतिशत चीजें स्वदेशी हैं.” सिनौली संस्कृति पर हड़प्पा की छाप केवल लगभग 10 प्रतिशत है.तीन रथों की खोज ने मंजुल और उनकी टीम के लिए सब कुछ बदल दिया. ‘वाहन’ मृत योद्धाओं के साथ दबे हुए पाए गए. मंजुल ने कहा, “हमने अपने साहित्य में केवल रथों के बारे में सुना है, लेकिन (उनके लिए) कोई भौतिक साक्ष्य नहीं था.” मंजुल ने अपने 50 मिनट के व्याख्यान के दौरान आर्य आक्रमण को खारिज करते हुए निष्कर्षों को वैदिक साहित्य से जोड़ने के लिए कई बार पलटवार किया. उन्होंने बताया कि इन रथों को बनाने में जिस प्रकार की लकड़ी का उपयोग किया गया था वह वेदों में वर्णित लकड़ी के समान थी.मंजुल ने कहा, “निष्कर्षों ने पुरातत्व जगत को चौंका दिया और हमारे इतिहास के बारे में एक नया दृष्टिकोण पेश किया.”तीनों रथ दो-पहिया हैं और डी-आकार की चेसिस और तांबे की सजावट के साथ हैं. इन्हें एक व्यक्ति द्वारा सवारी करने के लिए बनाया गया था. हालांकि मंजुल का मानना है कि इस पर अभी और अधिक शोध की आवश्यकता है और वे मानते हैं कि रथों का आविष्कार शायद भारत में हुआ था.निष्कर्ष आरएसएस के दृष्टिकोण के अनुरूप हैं. यूट्यूब पर संगठन की ज्ञान श्रृंखला के एक एपिसोड में जिसका शीर्षक ‘द मिथ ऑफ आर्यन इनवेज़न ‘ है, आरएसएस विचारक कृष्ण गोपाल ने आक्रमण को “अंग्रेजों की एक परिकल्पना” कहा है.उन्होंने कहा, “आर्य का अर्थ है श्रेष्ठ. अंग्रेजों ने सवाल उठाया कि जिसे वे गुलाम देश के रूप में देखते थे, वहां के लोग श्रेष्ठ कैसे हो सकते हैं. इसलिए, उन्होंने एक परिकल्पना दी कि आर्य बाहर से आए थे.”पीयर-रिव्यूड जर्नल साइंस में प्रकाशित 92 वैज्ञानिकों द्वारा 2018 के पेपर में निष्कर्ष निकाला गया कि आर्य मध्य एशियाई स्टेपी चरवाहे थे, जो लगभग 2000 ईसा पूर्व और 1500 ईसा पूर्व के बीच भारतीय उपमहाद्वीप में चले गए थे.
मृतकों का संस्कार
एएसआई के अनुसार, एंटीना तलवारें और आभूषणों से जुड़ी उनकी हिल्टों ने भी अंतिम संस्कार में अहम भूमिका निभाई. ऋग्वेद में उल्लेख है कि योद्धाओं को उनके सभी हथियारों के साथ पूरी पोशाक में दफनाया जाता था. कई कब्रगाहों में अनोखी विशेषताएं भी हैं. मंजुल ने एक स्लाइड शो में चित्रों की ओर इशारा करते हुए कहा, “कुछ लकड़ी के ताबूत दफन हैं, कुछ तांबे की म्यान और स्टीटाइट जड़े हुए सजावट के साथ हैं.”मंजुल की टीम को वह गुप्त कक्ष भी मिला जहां पुजारी वास्तविक दफन से पहले अंतिम अनुष्ठान किया करते थे. टीम का अनुमान है कि यह अनुष्ठान पूरे दिन चलता होगा.सिनौली के निष्कर्ष एक अन्य मामले में प्राचीन भारतीय साहित्य के अनुरूप हैं – एएसआई टीम ने सिनौली में महिला अवशेषों की भी खोज की. मंजुल ने कहा, “हमारे साहित्य (महाभारत और रामायण) में, हमने महिला योद्धा के बारे में सुना है. संभवतः (सिनौली में) पहले कबीले में महिला योद्धा भी थीं.”एक बिल्ली के अवशेष ने सभी की चौंका दिया. मंजुल ने कहा, “पिछली खुदाईयों में पुरातत्वविदों को कुत्तों की कब्रें मिल चुकी हैं. यह पहली बार है जब किसी बिल्ली की कब्र मिली है. संभवतः यह एक पालतू बिल्ली होगी.”जबकि अधिकांश दर्शक आश्चर्यचकित थे, कुछ लोग इस बात से सहमत नहीं थे कि आर्य भारत के मूलनिवासी थे.कार्यक्रम में भाग लेने वाले सेवानिवृत्त इंजीनियर देबदत्त रे ने कहा, “वे (एएसआई) सिर्फ यह साबित करना चाहते हैं कि आर्य इस भूमि से हैं, बाहरी नहीं.”

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