दिल्ली की सरहदों पर जारी किसान आंदोलन इस देश के लोकतंत्र का नया इम्तिहान है। एक तरफ़ पंजाब–हरियाणा, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और दूसरे राज्यों से आए लाखों किसान हैं और दूसरी तरफ़ अपने दो–तिहाई बहुमत से हासिल जनादेश वाली सरकार, जो एक क़दम पीछे हटने को तैयार नहीं थी। बीच में सुप्रीम कोर्ट को देखल करना पड़ा तो तस्वीर अब कुछ बदलती नजर आ रही है। आने वाले दिनों में इस आंदोलन का चेहरा कैसा होगा यह समय बताएगा इतना जरूर है कि बारिश से भीगा यह सर्द मौसम है जो किसी भी आंदोलन के हौसले को गला सकता है, लेकिन इस आंदोलन को नहीं गला पाया है। अभी भी इस सवाल का सही जवाब नहीं मिल पा रहा है कि क्या यह आंदोलन रातों–रात खड़ा हो गया है? क्या तीन कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ पैदा हुआ गुस्सा आंदोलन में बदल गया है? सरकार याद दिला रही है और ठीक ही याद दिला रही है कि ये वे क़ानून हैं जिनका वादा दूसरे दल भी अपने घोषणापत्रों में करते रहे हैं। सरकार को उचित ही यह बात समझ में नहीं आ रही कि जो मांगें कल तक सबके लिए सही थीं और खेती को गति देने के लिहाज से ज़रूरी, अचानक उन पर किसान भड़क क्यों उठे हैं। सरकार को लग रहा है कि इन किसानों को विपक्ष भड़का रहा है। सरकार का प्रस्ताव है कि इन तीनों क़ानूनों में वे सारे नुक़्ते हटाए जा सकते हैं जिन पर किसानों को आपत्ति है। मगर किसान हैं कि मानते नहीं। उनका कहना है– तीनों क़ानून वापस लिए जाएं।किसान ऐसा क्यों कह रहे हैं? क्या सरकार से उनका भरोसा उठ गया है? क्या वह वाकई मानने लगे हैं कि यह सरकार पूंजीपतियों की दोस्त है और सारे फ़ैसले उन्हीं के हित में ले रही है? एक हद तक यह बात है लेकिन इससे भी आगे कुछ बातें हैं। सरकार से भरोसा टूटने की यह प्रक्रिया सिर्फ़ इन क़ानूनों तक सीमित नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में अपनी चुनावी सफलता के बाद सरकार ने जिस तरह का आचरण किया है, उसमें यह बात बहुत साफ़ नज़र आती है कि लोकतांत्रिक असहमतियों और आंदोलनों के प्रति उसका रवैया बहुत असहिष्णु है– उन आंदोलनों के प्रति भी जो अपने आंतरिक गठन और अनुशासन में लोकतंत्र की नई कसौटियां बना रहे हैं। किसान आंदोलन में भी खालिस्तानी तत्व खोज लिए गए, नक्सली हाथ देख लिया गया और यह सवाल भी पूछा गया कि इनकी फंडिंग कहां से हो रही है। यह आंदोलन इस देश में लोकतांत्रिक जज़्बे की बहाली का भी आंदोलन है। दरअसल, यह किसान आंदोलन इस वजह से भी महत्वपूर्ण है। वह इस देश में अपनी नागरिकता की बहाली का आंदोलन भी बन गया है। वह हाशिए से केंद्र पर आ गया है। यही वजह है कि कल तक मीडिया का जो बड़ा हिस्सा इस आंदोलन को या तो नज़रअंदाज़ कर रहा था या इस पर सवाल उठा रहा था या इसका मज़ाक उड़ा रहा था, आज वह गंभीरता से इसकी ख़बरें लेने को मजबूर है। यह ठीक है कि इसमें बहुत सारे अमीर किसान हैं जो अपने खेतिहर मजदूरों का शोषण भी करते रहे होंगे, यह भी ठीक है कि मौजूदा व्यवस्था भी इन किसानों और ख़ास कर छोटे किसानों के लिए मददगार साबित नहीं हुई है। लेकिन यह आंदोलन इन बातों से परे जा चुका है। तीनों क़ानूनों की वापसी दरअसल उसके लिए भारतीय लोकतंत्र में अपनी वापसी का मसला है। उसे वह दवा नहीं चाहिए जिस पर उसे भरोसा नहीं है। सरकार यह क़ानून वापस लेगी तो एक तरह से उस लोकतंत्र का सम्मान करेगी जिसमें आम नागरिक की बात सर्वोपरि होती है।