आइए अटल जी की अटल सोच को इस लेख से समझे
रणघोष खास. शक्ति सिन्हा, पूर्व आईएएस और लेखक
आज अटल बिहारी वाजपेयी की जयंती है। एक लंबा सार्वजनिक जीवन जीने के बावजूद उनको समझना इसलिए अधिक मुश्किल है, क्योंकि महात्मा गांधी या जवाहरलाल नेहरू के विपरीत, वह बमुश्किल डायरियां अथवा पत्र–पत्रिकाओं में लिखा करते थे। अपनी हालिया किताब वाजपेयी : द इयर्स दैट चेंज्ड इंडिया के लिए शोध करते समय मैंने उनके कई भाषण और कविताएं पढ़ीं, ताकि उनके नजरिए को गहराई से समझ सकूं। अपनी सोच को उन्होंने कभी विशेष रूप में जाहिर नहीं किया, लेकिन उनके शब्दों और कर्मों से वह साफ–साफ महसूस की जा सकती है।
मुझे एक ऐसा लंबा निबंध मिला, जिसे वाजपेयी ने अपने दोस्त एनएम (अप्पा) घटाटे के लिए लिखा था। उन दिनों वह वाजपेयी के भाषणों की एक पुस्तक डिसिसिव डेज का संपादन कर रहे थे। मैं इसलिए भी खुद को भाग्यशाली मानता हूं, क्योंकि मुझे एक जीवनी का विस्तृत नोट भी मिला, जो वाजपेयी ने चंद्रिका प्रसाद शर्मा के लिए लिखा था। शर्मा भी उनके भाषणों की एक किताब का संपादन कर रहे थे। इन निबंधों को पढ़कर वाजपेयी की विश्व–दृष्टि के बारे में मेरी समझ और व्यापक बनी, विशेषकर इतिहास को लेकर उनकी अवधारणा और समकालीन परिस्थितियों पर उनकी राय को जानने–समझने के बाद।
पांच प्रमुख सिद्धांत हैं, जिन्हें वाजपेयी की विश्व–दृष्टि माना जा सकता है। पहला, जैसा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से जुड़े अधिकांश लोग मानते हैं, वाजपेयी भी इस बात से सहमत थे कि भारतीय समाज में विभाजन के कारण भारत विदेशी आक्रांताओं का आसान शिकार बना। उनका मानना था कि जाति–व्यवस्था ने भारतीय समाज को कई हिस्सों में बांट दिया है। इसमें हथियार रखने का अधिकार सिर्फ क्षत्रियों को दिया गया है, जबकि वेद और उपनिषद हर कोई नहीं पढ़ सकता। वह तंज कसा करते थे कि प्लासी के युद्ध में सिपाहियों से अधिक संख्या दर्शकों की थी, जो युद्ध का नतीजा तो जानना चाहते थे, लेकिन लड़ाई में भाग नहीं लेना चाहते थे। जब आरएसएस के पूर्व सरसंघचालक बाला साहब देवरस का निधन हुआ, तब वाजपेयी ने उन्हें याद करते हुए कहा– देवरस ने कहा था कि यदि अस्पृश्यता पाप नहीं है, तो कुछ भी पाप–कर्म नहीं है। इन अमानवीय भेदभावों को खत्म होना होगा।
दूसरा सिद्धांत, वह हिंदू परंपराओं में दृढ़ विश्वास रखते थे, लेकिन धार्मिक और कर्मकांडी नजरिये से कहीं ज्यादा वह इन परंपराओं को सांस्कृतिक व दार्शनिक नजरिये से देखा करते थे। आरएसएस के अन्य लोगों की तरह वाजपेयी भी मानते थे कि ‘धर्म’ की अवधारणा भारत से जुड़ी हुई नहीं है। भारत में ‘उपासना पद्धति’, यानी इबादत के अलग–अलग तरीके हैं। इनमें से किसी का सच पर एकाधिकार नहीं है। इस दृष्टि का खास पक्ष यह है कि मातृभूमि के प्रति निष्ठा धार्मिक विश्वास से ऊपर है। इस तरह उन्होंने ‘हिंदू’ शब्द को परिभाषित किया है।
इसका मतलब यह था कि इब्राहिम धर्म के अनुयायी को इस पदानुक्रम को स्वीकार करने में कठिनाई होगी, जो यह मानते हैं कि सत्य पर अकेले उनका एकाधिकार है। वाजपेयी का यह भी मानना था कि राष्ट्र को धार्मिक मान्यताओं के आधार पर अपने नागरिकों में भेदभाव नहीं करना चाहिए, बल्कि सभी मतों का बराबर सम्मान करना चाहिए, क्योंकि वे सभी समाज का हिस्सा हैं।
वाजपेयी की विश्व–दृष्टि का तीसरा मजबूत स्तंभ धर्मांतरण के प्रति उनका स्वाभाविक चिंतन था। 1988 में पुणे में दिए गए अपने एक लंबे भाषण के दौरान, उन्होंने कहा था कि भले ही इंडोनेशिया व अफगानिस्तान इस्लामी राष्ट्र बन गए हैं, लेकिन उन्होंने पूर्व की अपनी विरासत नहीं छोड़ी है। वाजपेयी ने विशेष रूप से उल्लेख किया था कि रामायण इंडोनेशिया की जीवंत परंपराओं का हिस्सा है, इसलिए वह आश्चर्य जताते हैं कि धर्मांतरण का मतलब अपनी सांस्कृतिक व ऐतिहासिक विरासत को छोड़ना क्यों है?
बिना कुछ विशेष कहे, कोई भी इसका अर्थ लगा सकता है कि देश के मुस्लिमों को विशेष रूप से भारतीय परंपराओं का पालन करना चाहिए। यह वही भावना है, जिसका इजहार जवाहरलाल नेहरू ने 24 जनवरी, 1948 को अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्रों को संबोधित करते हुए किया था। तब उन्होंने कहा था कि उन्हें भारत की विरासत पर गर्व है, और निश्चय ही अपने उन पूर्वजों पर भी, जिन्होंने हमें बौद्धिक और सांस्कृतिक रूप से श्रेष्ठ बनाया। यह कहकर उन्होंने छात्रों से पूछा था कि क्या वे भी यही महसूस करते हैं या फिर वे मानते हैं कि यह उनकी विरासत नहीं है?
चौथे सिद्धांत का गहरा जुड़ाव भारत की मिट्टी से है। यहां की साहित्यिक परंपराओं ने वाजपेयी के मानसिक विकास में खुराक का काम किया था। तुलसीदास की रामचरितमानस, जयशंकर प्रसाद की कामायनी, निराला की राम की शक्ति पूजा और महादेवी वर्मा की कविताओं का उन पर गहरा असर था। प्रेमचंद के यथार्थवाद ने भी उन्हें खासा प्रभावित किया था। उन्हें जैनेंद्र (पत्नी और प्रेयसी), अज्ञेय (शेखर : एक जीवनी) व वृंदावन लाल वर्मा भी काफी पसंद थे। ये लेखक उन्हें अतीत की याद दिलाया करते थे, पर लगे हाथ उन्हें उन चुनौतियों के बारे में सोचने के लिए भी मजबूर किया करते थे, जिनसे पार पाना बहुत जरूरी था।
और आखिरी सिद्धांत, वाजपेयी को यकीन था कि भारत का महान बनना तय है, लेकिन महानता से इसे वंचित कर दिया गया है। अतीत हमारे लिए महत्वपूर्ण है, लेकिन हमें उसका गुलाम नहीं बन जाना चाहिए। राजनीतिक रूप से, शीत युद्ध समाप्त हो चुका था और उभरती दुनिया भारत को दुश्मन मान रही थी। वाजपेयी संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ आगे बढ़ने में सक्षम थे, जबकि उन्होंने उसको चुनौती दी थी और परमाणु परीक्षण किया था। मगर वह चाहते थे कि भारत और अमेरिका साथ–साथ रहें, क्योंकि वह जानते थे कि चीन का उदय असंतोष बढ़ाएगा। वह चीन के साथ भी संबंध सुधारना चाहते थे, पर अंतत: यही मानते थे कि भारत व अमेरिका स्वाभाविक मित्र हैं। जहां तक आर्थिक नजरिये की बात है, तो वह भारत की उद्यमशील सोच के हिमायती थे। वह लाइसेंस परमिट राज को नापसंद करते थे, जिसने भारत को काफी पीछे धकेल दिया था।
जाहिर है, अटल बिहारी वाजपेयी एक जटिल राजनीतिक शख्सियत जरूर थे, लेकिन इसमें कतई संदेह नहीं है कि उनकी विश्व–दृष्टि ने आज के भारत को गढ़ने में काफी मदद की है।