जनमत अगर विवेक से अधिक भावना से हासिल होता है तो उसका ग्राही अहंकारी हो जाता है। मौजूदा हालात में अहंकार चरम पर है और ऐसे लग रहा है कि जो सत्ता के ख़िलाफ़ है वह “देश का दुश्मन है।”
हजारों आंदोलनकारी किसान डेढ़ माह से अधिक दिन से कड़ाके की ठंड और (अब) बारिश में खुले में जिंदगी और मौत की जंग के बीच अपनी मांगों के लेकर वीरान सड़कों पर हैं। 9 बार फिर सरकार और किसानों के बीच वार्ता हो चुकी है। कोई ताज्जुब नहीं कि प्रधानमंत्री को खुश करने के लिए कोई मंत्री इस बारिश को भी “सरकार का विरोध करने वाले किसानों से ईश्वर भी खफा” न बताने लगे या “प्रकारांतर से इंद्र भगवान का सरकार को आशीर्वाद” करार न दे। किसानों के आंदोलन के दौरान कुछ दिन पहले आयकर विभाग ने पंजाब के आढ़तियों पर छापे मारे तो अब एनआईए ने 40 से ज्यादा पंजाब के गायकों, पत्रकारों समेत 40 से ज्यादा किसान आंदोलन से जुड़ी हस्तियों के खिलाफ जांच शुरू कर दी है। दिल्ली पुलिस ने सांप्रदायिक दंगों में आरोपित अल्पसंख्यकों का मुक़दमा लड़ने वाले वकील महमूद प्राचा के यहाँ छापा मारा जिस पर वकीलों की संस्था ने ऐतराज किया। कई राज्य सरकारों की अति–उत्साही पुलिस ने सरकार की आलोचना को देशद्रोह मान कर लोगों को जेल में डालना शुरू कर दिया।
हाल में महाराष्ट्र के एक व्यक्ति द्वारा लिखे गए एक पत्र में बताया कि उत्तर प्रदेश में वाहनों के प्लेट पर जाति–सूचक शब्द लिखे रहते हैं जिससे सामाजिक तनाव बढ़ता है। सरकार इतनी उत्साहित हो गयी कि जिस वाहन पर जाति का नाम लिखा होगा, उसे जब्त करना शुरू किया है। यह वही सरकार है जिसने इसी दौरान अपनी पार्टी के एक विधायक के ख़िलाफ़ मुज़फ्फर नगर दंगों को भड़काने के मुक़दमों को वापस लेने के लिए कोर्ट में हलफनामा दाखिल किया है। इस विधायक को जनता के पैसों से वर्षों तक विशेष सुरक्षा दी गयी ताकि वह “महफूज” रहे और बाद की ऐसी ही स्थिति में धर्म–विशेष के ख़िलाफ़ आग उगलता रहे। कुछ माह पहले इसी प्रदेश के शामली जिले में एक बावर्दी एसपी ने कांवरिये (शिव भक्त) का पैर दबाया और धोया और इस फोटो को मीडिया को ही नहीं दिया, गेरुआधारी मुख्यमंत्री के कार्यालय भी भेजा। यह है 70 साल के प्रजातंत्र का विद्रूप चेहरा। भारत के लोकतंत्र में दोष है लेकिन जब राज्य–शक्ति का इस तरीके से होने लगेगा तो आम जनता का भी लोकतंत्र से भरोसा टूटने लगेगा।