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सामीप्य और समर्पण के बीच भी थोड़ी सी जगह होती है; सांझे की जगह
होई जबै द्वै तनहुँ इक ज़िंदगी: ना टापू है, ना आकाश में तैरता नगर ( अध्याय 10) रणघोष खास. बाबू गौतम सांझ होते ही वह छत की ओर भागती,” आओ आओ बींद जी, सूरज नै बिदाई देवाँ।” छत पर चढ़ कर च…