डंके की चोट में पढ़िए मीडिया का छिपा हुआ सच

मीडिया में विज्ञापन को कुत्ते की हड्‌डी समझते हैं धनबली नेता  


नेतागिरी करने वालों को पता है कि मीडिया में विज्ञापन की हड्‌डी डालते रहो वह सबकुछ मिलता चला जाएगा जो उनके असली चेहरे को छिपा दें। यह सब लिखकर स्वीकार करना ही मीडिया के जिंदा हाेने का अहसास है


रणघोष खास. प्रदीप नारायण


तीन लाइनों में इंसान की औकात सामने आ जाती है। पहली वह शेर की तरह दहाड़ना पंसद करता है लेकिन शेर के सामने आते ही सहम जाता है। दूसरा वह लोमड़ी की तरह रोजमर्रा के जीवन में  चालाकी, मक्कारी, छल, कपट करता है लेकिन उसके साथ रहना पसंद नहीं करता। अंतिम व तोड़ करने वाली बात है वह अपनी सुरक्षा के लिए  कुत्ते को अपने पास रखना पंसद करता है लेकिन उस जैसा वफादार नहीं बनना चाहता। मौजूदा हालात में इंसान ने अपने इसी चरित्र से मोहब्बत कर ली है। इसी संदर्भ को मीडिया से जोड़ा जाए तो तस्वीर हुबहु नजर आती है। मीडिया के काम करने के तौर तरीकों पर लगातार हमले हो रहे हैं। होने भी चाहिए छिपा हुआ सच जो बाहर आ रहा है। सवाल यह है कि हमला करने वाले खुद के प्रति कितने ईमानदार है। अधिकतर वो लोग हैं जिनका निजी जीवन समाज एवं राष्ट्र के प्रति पूरी तरह कर्महीन रहा है। मीडिया में दो तरह के नेताओं की खबरें ज्यादा छपती है। पहले वे नेता जो जमीनी ताकत रखते हैं ओर अपनी हैसियत से मीडिया को खबर छापने के लिए मजबूर कर देते हैं। इन नेताओं की जमात उतनी रह गई है जितनी संयुक्त परिवारों की।  दूसरे वो नेता है जिनका कोई जनाधार नहीं, कोई छवि या पकड़ नहीं है। बस पैसो के बल पर मीडिया की उस कमजोरी को पकड़ लेते हैं जिसे बाजार की भाषा में विज्ञापन कहते हैं। विज्ञापन के बदले वे उस तरह की कवरेज प्रकाशित करवाने में कामयाब हो जाते हैं जिसकी वो हैसियत तक नहीं रखते। इनकी खबरें छापना मीडिया की मजबूरी हो जाती है। वजह विज्ञापन मीडिया के लिए उसी तरह है जिस तरह इंसान के शरीर में खून का होना। आज मीडिया में कुछ भी छप सकता है बस उसकी मेल पर जानकारी किसी तरह पहुंच जाए ओर पत्रकार से  ठीक ठाक नमस्कार हो। समाचार झूठा सच्चा वह बाद का मसला है। ऐसे में धनबलि नेता मीडिया प्लेटफार्म पर आए दिन सुर्खिया बटोर रहे हैं। कहने को मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है, सिस्टम पर निगरानी रखता है। आमजन सरकारी मशीनरी से ज्यादा उस पर भरोसा करता है। यह एक सच का हिस्सा हो सकता है लेकिन संपूर्ण सच नहीं है। एक सच यह भी है जो कड़वा होने के साथ साथ बदबुदार भी है। धनबली नेताओं ने विज्ञापन को मीडिया के लिए कुत्ते की हड्‌डी समझ लिया है। इन नेताओं में यह गुब्बार आ चुका है कि जिस तरह मालिक की सुरक्षा में भौंकते कुत्ते के सामने हड्‌डी फेंक दो वह चुप हो जाएगा। वह पूंछ हिलाते हुए हड्‌डी को तब तक चूसता रहेगा जब तक उस पर टपक रहा लाल खून आना बंद ना हो जाए। वह हड्‌डी के लालच में भूल जाता है कि यह खून हड्‌डी का नहीं उसके दांत से निकल रहा है जो सूखी हड्‌डी को चबाते समय कमजोर पड़ गया था। मीडिया में विज्ञापन इसी सूखी हड्‌डी का काम करता है। धनबलि नेता जो अपने वैध- अवैध धंधों व कारनामों को छिपाने एवं सुरक्षित करने के लिए राजनीति लिबास पहन लेते हैं। उन्हें पता है कि मीडिया में विज्ञापन की हड्‌डी डालते रहो वह सबकुछ मिलता चला जाएगा जो उनके असली चेहरे को छिपा दें। मीडिया में विज्ञापन कई रास्तों से होकर अपना असर डालता है। मसलन पत्रकारों को विज्ञापन लाने पर कमीशन दिया जाता है। वह इसलिए विज्ञापन की रिकवरी का जिम्मा भी उसी पर रहेगा। अगर राशि नहीं आती हैं तो प्रबंधन पत्रकार के वेतन से विज्ञापन की राशि वसूल कर लेता है। यह पहले से ही लिखित में सहमति होती है। धनबलि नेता विज्ञापन प्रकाशित कराने के बाद जानबूझकर राशि देने में देरी करता है। वह इसलिए कि पत्रकार दबाव में रहे। उसके मुताबिक वह खबरें छापता रहे। इसी तरह वह कई महीने निकाल देता है। किश्तों में राशि देता रहता है ताकि भरोसा बना रहे। इस तरह वह अपने मकसद में कामयाब होता नजर आता है।  सबसे ज्यादा मार ग्रामीण संवाददाताओं को झेलनी होती है। पहले मीडिया प्रबंधन उनका टारगेट तय कर देता है। नौकरी से ना निकाल दे इसी डर से ये पत्रकार  छुटमैया धनबलि नेताओं का आनन फानन में विज्ञापन लगा देते हैं। उसके बाद शुरू होता है आए दिन खबरों को लगवाने का खेल। ग्रामीण पत्रकार मीडिया की सबसे छोटी ईकाई होता है। लिहाजा वह एक तरफ धनबलि नेताओं की  खबरें लगवाने के लिए प्रबंधन से याचना करता रहता है दूसरी तरफ खबरें नहीं छपने पर बिना औकात के इन नेताओं  को भी बर्दास्त करता है। इसलिए मीडिया संस्थानों के लाखों रुपए विज्ञापन के तौर पर ठीक उसी तरह फंस जाते  हैं जिस तरह सूखी हड्डी चबाते समय कुत्ते के दांत से खून का बहना..।  यही हैं मीडिया का छिपा हुआ सच..। इसलिए मीडिया पर उंगली वहीं उठाए जो खुद में बेहतर उदाहरण हो।

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