रणघोष खास. चंदन कुमार जजवाड़े. साभार बीबीसी
केंद्र की राजनीति में नरेंद्र मोदी और अमित शाह के उदय के साथ ही बीजेपी ने कई चुनावों में जीत हासिल की और राज्यों में भी अपनी सरकार बनाई. लेकिन इस दौरान बीजेपी दिल्ली की सत्ता पर कब्जा नहीं कर पाई थी. केवल मौजूदा नेतृत्व के दौर में ही नहीं, इससे पहले भी कुल मिलाकर बीते 27 साल से दिल्ली ही उत्तर भारत का एकमात्र राज्य था, जहां बीजेपी कभी सरकार नहीं बना पाई थी.हालांकि इस बार 48 सीटों के साथ बीजेपी ने दिल्ली में भी जीत हासिल कर ली है.नज़र डालते हैं बीते क़रीब तीन दशक के दिल्ली में बीजेपी के सफ़र पर, जब सत्ता से बाहर रहकर भी बीजेपी और आरएसएस अपने समर्थक, वोटर और कैडर को एकजुट रखने में कामयाब रहे. साल 1993 में बीजेपी दिल्ली विधानसभा में बीजेपी ने जीत हासिल की थी. उसे राज्य में 43% वोटों के साथ 49 सीटों पर जीत दर्ज की थी.हालांकि इस जीत के बाद बीजेपी दिल्ली में लगातार संकट में फंसती चली गई.पहले तो उसने मदन लाल खुराना को राज्य का मुख्यमंत्री बनाया. उसके बाद उन्हें हटाकर साहिब सिंह वर्मा के हाथों में राज्य की बागडोर सौंपी.
बीजेपी के लिए बड़े संकट की शुरुआत
इसी दौर में दिल्ली में प्याज के दाम आसमान को छू रहे थे और इसी दौरान साहिब सिंह वर्मा की जगह सुषमा स्वराज को दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाया गया.सुषमा स्वराज के मुख्यमंत्री बनने के कुछ ही दिनों बाद साल 1998 में दिल्ली में विधानसभा चुनाव हुए थे, लेकिन बीजेपी राज्य की 70 सीटों की विधानसभा में 15 सीटों पर सिमट गई.साल 2003 में भी बीजेपी महज़ 20 सीटें ही जीत पाई और साल 2008 के चुनावों में उसे 23 सीटों पर जीत मिली.साल 2013 में कांग्रेस के लगातार तीन कार्यकाल की एंटी इनकमबेंसी के बाद भी बीजेपी दिल्ली में जीत हासिल नहीं कर पाई और एक बार फिर 31 सीटों पर रुक गई.यह पहला चुनाव था, जब दिल्ली की राजनीति में आम आदमी पार्टी की एंट्री हुई थी और उसने 28 सीटें जीतकर कांग्रेस के समर्थन से राज्य की सत्ता हासिल कर ली.आम आदमी पार्टी की एंट्री ने जहां कांग्रेस का राज्य से पूरी तरह सफ़ाया कर दिया, वहीं बीजेपी के लिए भी सबसे बुरे दौर की शुरुआत हो गई.अरविंद केजरीवाल की सियासत और चुनावी प्रदर्शन ने दिल्ली में साल 2015 के चुनावों में बीजेपी को 3 सीटों पर समेट दिया, जबकि साल 2020 के चुनावों में भी बीजेपी महज़ आठ सीटें ही जीत पाई.ये चुनाव ऐसे वक़्त हुए थे जब केंद्र में नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन चुके थे और बीजेपी ने साल 2014 और साल 2019 के लोकसभा चुनावों में दिल्ली की सभी सात सीटों पर जीत हासिल की थी, लेकिन वो राज्य विधानसभा में जीत से काफ़ी दूर चली गई.हालांकि बीते तीन दशक में दिल्ली में बीजेपी अलग-अलग मुद्दों को लेकर सड़कों पर संघर्ष करती रही, जो चुनावों में बहुत असर नहीं कर पाया, वहीं दिल्ली के अलग-अलग इलाक़ों में आरएसएस की शाखाएं लगती रहीं.इस दौरान संघ से जुड़े संगठन भी सक्रिय रहे और उसकी छात्र इकाई एबीवीपी ने कई बार दिल्ली यूनिवर्सिटी छात्र संगठन के चुनावों में कई पदों पर जीत हासिल की.संघ और इससे जुड़े संगठनों की सक्रियता की वजह से बीजेपी दिल्ली में कभी बहुत कमज़ोर पार्टी नहीं दिखी और इसके वोट भी एक निश्चित सीमा के आसपास बने रहे.बीजेपी के साथ इस दौरान एक ख़ास बात और दिखी कि सत्ता से दूरी के बाद भी इस पार्टी में कभी टूट देखने को नहीं मिली.वरिष्ठ पत्रकार संजीव श्रीवास्तव कहते हैं, “बीजेपी या लेफ़्ट जैसे दल टूटते नहीं हैं. ये कैडर आधारित दल हैं और कैडर इनकी बड़ी ताक़त होते हैं.”बीजेपी की मौजूदा जीत पर संजीव श्रीवास्तव कहते हैं, “हालांकि यह बीजेपी की जीत से ज़्यादा आम आदमी पार्टी की हार है, क्योंकि बीजेपी का वोट बहुत नहीं बढ़ा है बल्कि आप के वोट घटे हैं. इसमें कांग्रेस प्रदर्शन में थोड़े सुधार की भी भूमिका है.”
तीन दशकों का ‘वनवास’
बीजेपी को इस जीत तक पहुंचने में किस तरह के दौर से गुज़रना पड़ा है?इस सवाल के जबाव में वरिष्ठ पत्रकार और दिल्ली की सियासत पर नज़र रखने वाले विनीत वाही करते हैं, “यह दौर बीजेपी के लिए बहुत मुश्किलों भरा था. तीस साल पहले प्याज की कीमतों ने बीजेपी को जिस तरह से रुलाया था, उसका असर लंबे वक़्त तक बना रहा.””बीजेपी के पास मदन लाल खुराना और साहिब सिंह वर्मा के बाद कोई बड़ा ज़मीनी स्तर का चेहरा नहीं था, लेकिन उसने हमेशा अपने कैडर को साधे रखा और इसमें आरएसएस का भी बड़ा साथ मिला.”विनीत वाही बताते हैं, “बीजेपी ने इस दौर में दिल्ली के पंजाबी, बनिया और अपने बाक़ी वोटरों को साधने के लिए लगातार उपाय जारी रखा. जैसे दिल्ली की अंतिम विधानसभा में विजेंद्र गुप्ता को नेता प्रतिपक्ष बनाया, जो बनिया समुदाय से आते हैं, तो दिल्ली में पार्टी का अध्यक्ष वीरेंद्र सचदेवा को बनाया जो पंजाबी समुदाय से आते हैं.”इसके अलावा दिल्ली में हाल के वर्षों में काफ़ी ज़्यादा चुनावी असर रखने वाले पूर्वांचली समुदाय को भी साधने की कोशिश की और मनोज तिवारी को भी राज्य में पार्टी का अध्यक्ष बनाया.इस दौरान बीजेपी ने आदेश गुप्ता, मनोज तिवारी, सतीष उपाध्याय, विजेंदर गुप्ता, हर्षवर्धन और ओपी कोहली जैसे नेताओं को राज्य में पार्टी की ज़िम्मेदारी दी, जबकि गुज्जर वोटरों को साधे रखने के लिए कभी रामवीर सिंह विधूड़ी को विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बनाया तो कभी रमेश विधूड़ी को लोकसभा का टिकट दिया.
वोटों के बंटवारे में लगा लंबा वक़्त
माना जाता है कि दिल्ली के वोटों का समीकरण कुछ ऐसा है, जिसमें वोटों के बंटवारे का बीजेपी को फ़ायदा हो सकता था. बीजेपी ने बीते 27 साल से अपने कैडर को संभाल कर रखा और अपने वोट को बचा कर रखा. विनीत वाही कहते हैं, “दिल्ली में आमतौर पर बीजेपी के नेता कभी अपनी पार्टी को छोड़कर दूसरी पार्टी में नहीं गए, लेकिन दूसरी पार्टी के कई बड़े नेता बीजेपी में शामिल हो गए, जो दिखाता है कि संगठन का पार्टी के नेताओं और वोटरों पर काफ़ी नियंत्रण है.”दिल्ली की ही बात करें तो शीला दीक्षित की सरकार में मंत्री रहे राजकुमार चौहान, अरविंदर सिंह लवली और अन्य कई नेता कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल हो गए.वहीं आम आदमी पार्टी छोड़कर भी कपिल मिश्रा, कैलाश गहलोत जैसे नेता जो दिल्ली की आप सरकार में मंत्री थे उन्होंने बीजेपी का दामन थाम लिया.देश का राजनीतिक केंद्र होने की वजह से दिल्ली बीजेपी के नेता भी यहां अलग-अलग मुद्दों पर सक्रिय दिखे, लेकिन यह राज्य की सत्ता तक पहुंचने के लिए काफ़ी साबित नहीं हुआ। इससे पहले साल 1993 में जब बीजेपी को दिल्ली विधानसभा चुनाव में जीत मिली थी, तो उसकी जीत में वोटों के बंटवारे की बड़ी भूमिका मानी जाती है.उस साल ‘जनता दल’ दिल्ली की सियासत में एक तीसरी पार्टी के तौर पर दिखी थी और उसने दिल्ली की सभी 70 सीटों पर चुनाव लड़ा था और 12% से ज़्यादा वोटों के साथ 4 सीटों पर जीत भी दर्ज की थी.जबकि कांग्रेस को क़रीब 35% वोट मिले थे और उसने 14 सीटों पर जीत हासिल की थी. यानी वोटों के बंटवारे का सीधा फ़ायदा बीजेपी को हुआ था.अब 27 साल बाद बीजेपी दिल्ली में फिर से चुनाव जीत पाई है तो उसके संगठन को मज़बूत बनाए रखने, हर समुदाय को साधे रखने में सफलता के अलावा वोटों के बंटवारे की भी एक भूमिका नज़र आती है.चुनाव आयोग से मिले अंतिम आंकड़ों के मुताबिक़ इन चुनावों में बीजेपी को क़रीब 45% वोट मिले हैं, जबकि आप को 43 % वोट हासिल हुआ है. यानी दोनों दलों के बीच वोटों का महज अंतर 2% है.कांग्रेस को भले ही इस बार भी किसी सीट पर जीत नहीं मिली है, लेकन उसने 6% से ज़्यादा वोट हासिल किए हैं, जो हारने और जीतने वाली पार्टी के बीच वोटों के अंतर से तीन गुना ज़्यादा है.