रणघोष खास. सत सिंह, साभार बीबीसी
सात अक्टूबर की शाम हरियाणा की राजनीति में एक बार फिर हलचल मच गई थी. सिर्फ आम जनता ही नहीं बल्कि राज्य के आला अधिकारी और ब्यूरोक्रेसी के सीनियर अधिकारी भी यह मानने लगे थे कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा की सत्ता में वापसी लगभग तय है. रोहतक में उनके निवास पर समर्थकों का जमावड़ा शुरू हो गया था, जैसे कि उनके मुख्यमंत्री कार्यकाल के दिनों में हुआ करता था.
वहीं, दूसरी ओर भाजपा के स्टेट ऑफिस में सन्नाटा पसरा हुआ था और कांग्रेस की जीत की चर्चाएं हर ओर हो रही थीं. आठ अक्टूबर की सुबह का माहौल कांग्रेस के पक्ष में नजर आ रहा था. हुड्डा के रोहतक स्थित आवास पर राष्ट्रीय चैनलों के रिपोर्टर और समर्थक बड़ी संख्या में जमा हो गए थे.कांग्रेस के चुनावी कार्यालय, जन्नत बैंक्वेट हॉल में बड़ी-बड़ी एलईडी स्क्रीन पर चुनावी नतीजे देखे जा रहे थे और समर्थक जश्न की तैयारी कर रहे थे. आठ अक्टूबर, सुबह 9 बजे तक, हुड्डा के घर पर समर्थकों और मीडिया की भारी भीड़ थी.
मतगणना के साथ-साथ कांग्रेस समर्थकों का उत्साह बढ़ता गया और हुड्डा ने मीडिया से बातचीत में कहा, “कांग्रेस बहुमत का आंकड़ा पार करेगी. चुनाव आयोग की वेबसाइट पर डेटा अपलोड में हो रही देरी से भाजपा को बढ़त मिलती दिख रही है, लेकिन स्थिति जल्द ही हमारे पक्ष में बदल जाएगी.” हालांकि, जैसे-जैसे दिन बीतता गया, कांग्रेस की उम्मीदें धूमिल होती गईं. भाजपा की बढ़त लगातार बढ़ती रही, और शाम तक कांग्रेस को अप्रत्याशित परिणामों का सामना करना पड़ा. भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने स्वीकार किया कि “परिणाम अप्रत्याशित हैं. न केवल कांग्रेस बल्कि भाजपा भी इन परिणामों से अचंभित है कि उन्हें बहुमत कैसे मिल गया.” इस पूरे घटनाक्रम के दौरान हुड्डा के बेटे और सांसद दीपेंद्र सिंह हुड्डा, जो कांग्रेस की जीत का दावा कर रहे थे, कहीं नज़र नहीं आए. परिणाम के दिन उनकी अनुपस्थिति ने कई सवाल उठाए. हालांकि चुनावी रणनीति में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा.
हुड्डा का भविष्य
पॉलिटिक्स ऑफ चौधर के लेखक, डॉ. सतीश त्यागी, मानते हैं कि 77 वर्षीय भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने इसे अपना अंतिम चुनाव बताया था.कांग्रेस के पास अब 37 विधायक हैं, जो विधानसभा में विपक्ष की आवाज उठाएंगे. ऐसे में संभव है कि हुड्डा नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी किसी और को सौंप दें और ख़ुद पार्टी के भीतर एक शक्ति केंद्र के रूप में अपनी भूमिका निभाएं. डॉ. त्यागी कहते हैं, “पांच साल का समय लंबा होता है और यह कहना कठिन है कि हुड्डा से फिर से कोई चमत्कार की उम्मीद की जा सकती है या नहीं.”
“लेकिन अब यह स्पष्ट है कि चौधर की कमान उनके बेटे दीपेंद्र सिंह हुड्डा को संभालनी होगी. दीपेंद्र को पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का समर्थन हासिल करना ज़रूरी होगा.””यह देखना दिलचस्प होगा कि वरिष्ठ नेता उन्हें कितना महत्व देते हैं और उनकी राजनीतिक भूमिका किस दिशा में जाती है.”सोशियोलॉजी के प्रोफेसर जितेंदर प्रसाद का मानना है कि भूपेंद्र हुड्डा का परिवार पिछले 100 साल से राजनीति में सक्रिय रहा है. उन्होंने राजनीति में कई उतार-चढ़ाव देखे हैं.प्रसाद कहते हैं, “भूपेंद्र हुड्डा की परिपक्वता और अनुभव उन्हें आज भी एक मजबूत नेता बनाते हैं.””हालांकि, यह सच है कि भाजपा ने हरियाणा में तीसरी बार सरकार बनाकर इतिहास रच दिया है. कांग्रेस को अब भाजपा से मुकाबला करने के लिए नई रणनीति की जरूरत होगी.”प्रसाद आगे कहते हैं, “भूपेंद्र हुड्डा की उम्र और उनके बेटे दीपेंद्र सिंह हुड्डा की लोकप्रियता को देखते हुए अब चर्चा दीपेंद्र के राजनीतिक भविष्य पर ही केंद्रित होगी.”
“समर्थक चाहते हैं कि दीपेंद्र को आगे बढ़ाया जाए. भूपेंद्र हुड्डा पहले ही मुख्यमंत्री, सांसद और नेता प्रतिपक्ष रह चुके हैं, लेकिन अब दीपेंद्र को आगे लाने की उम्मीद उनके समर्थकों में है.”
राजनीति का बदलता स्वरूप
प्रसाद यह भी जोड़ते हैं कि आज की राजनीति में कमांड पॉलिटिक्स की बजाय डिमांड पॉलिटिक्स की जरूरत है.पहले नेता एक बार ड्राइंग रूम में बैठकर फैसला लेते थे और वह लागू कर दिया जाता था. लेकिन अब समय बदल गया है.अब जनता की कई माँगें हैं और जो उन्हें पूरा करेगा, वही राजनीति में आगे बढ़ेगा. हुड्डा और उनके बेटे दीपेंद्र को इस नए दौर की राजनीति में अपने काम करने के तरीकों में बदलाव लाना होगा.प्रसाद का कहना है कि वंशवाद की राजनीति करने वाले कई घरानों का भविष्य आज खतरे में नजर आ रहा है. हरियाणा में देवी लाल परिवार के कई बड़े नेता चुनाव हार चुके हैं.भजन लाल के पोते को भी हार का सामना करना पड़ा है. ऐसे में भूपेंद्र हुड्डा के लिए भी चुनौती होगी कि वह कैसे अपने दबदबे को कांग्रेस हाईकमान और किसानों के बीच बरकरार रख पाते हैं.कामरेड इंद्रजीत सिंह, जो रोहतक से सीपीएम की राजनीति करते हैं, मानते हैं कि अगर विधानसभा चुनावों में भी लोकसभा चुनावों की तरह इंडिया अलायंस का गठबंधन बना रहता और आम आदमी पार्टी और समाजवादी पार्टी जैसे दल भी साथ होते, तो कांग्रेस कुछ और सीटें जीत सकती थी.इंद्रजीत सिंह कहते हैं, “हुड्डा जैसे वरिष्ठ नेता भी इस गठबंधन की ज़रूरत को ठीक से समझ नहीं पाए.””कांग्रेस का पक्ष मजबूत होने के बावजूद यह मौका हाथ से निकल गया. भाजपा को रोकने के लिए गठबंधन ज़रूरी था.”इंद्रजीत सिंह आगे कहते हैं, “भले ही हुड्डा सत्ता में नहीं हैं, लेकिन उनका राजनीतिक प्रभाव अब भी बरकरार है.””कांग्रेस को मिली 37 सीटें हुड्डा की राजनीतिक पकड़ और नेतृत्व का ही परिणाम हैं. हरियाणा की राजनीति में उनका योगदान और प्रभाव आने वाले समय में भी महत्वपूर्ण रहेगा.”
जाट समुदाय और हुड्डा
भीम सुहाग की ‘पावर पॉलिटिक्स इन हरियाणा’ किताब के अनुसार जाट ज्यादा समय तक पावर से दूर नहीं रह सकते. अगर उनको राजनितिक सत्ता से दूर रखा जायेगा तो वो लड़ेंगे-झगड़ेंगे लेकिन हरसंभव कोशिश करेंगे की वो सत्ता के नज़दीक रहें. अब यह देखना होगा कि जाट समुदाय, जिसने इस बार कांग्रेस को समर्थन दिया, अगले पांच सालों में भाजपा की ओर रुख करेगा या फिर भूपेंद्र हुड्डा के साथ बना रहेगा. दूसरी ओर, हुड्डा के विरोधी, जैसे कुमारी शैलजा और रणदीप सुरजेवाला, भी कांग्रेस के भीतर उनके लिए चुनौती बने रहेंगे, खासकर तब, जब टिकट वितरण से लेकर चुनाव प्रचार तक हुड्डा का ही दबदबा रहा है. आखिरकार, भूपेंद्र सिंह हुड्डा का भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि वह हरियाणा की राजनीति में कितनी सक्रियता से भूमिका निभाते हैं और अपने बेटे दीपेंद्र को किस तरह आगे बढ़ाते हैं.