नेता को खबर चाहिए, मीडिया को पैकेज, दोनों की अपनी दुकानदारी, गलत क्या है..
रणघोष खास. प्रदीप हरीश नारायण
हरियाणा विधानसभा चुनाव की प्रत्येक सीट पर ताजा तरीन खबरें पढ़ाने, दिखाने को लेकर इन दिनों उम्मीदवार ओर मीडिया में पैकेज को लेकर कहीं टकराव तो कही सहमति की खबरें आ रही हैं। जितना बड़ा पैकेज उतनी बड़ी खबर। साथ में कई तरह की छूट। जिसमें नेताजी के खिलाफ निगेटिव खबर को प्रकाशित नही करना, बीच बीच में विज्ञापन लगाना और बढ़ा चढ़ा कर ऐसे प्रस्तुत करना मानो वह विजयी होकर चंडीगढ़ पहुंच चुका है। मतदान की महज रस्म अदायगी निभानी बाकी है। जनता मीडिया ओर नेताजी के बीच हुई डील को गलत मानती है। उसका आरोप है की मीडिया बिक चुका है। गिर चुका है। खंडित होकर बेशर्मी की तरह चुनाव के बाद फिर अपनी पुरानी रंगत में आ जाता है।
कितना आसान होता है मीडिया पर आरोप लगाना। क्या समाज की तमाम नैतिक जिम्मेदारी निभाने का टेंडर मीडिया ने ही लिया हुआ है। आरोप लगाने क्या खुद के प्रति पूरी तरह से ईमानदार और जवाबदेह होते है। स्पष्ट तौर पर साफ सुथरी बात है। जिसे हम सभी को स्वीकार कर लेना चाहिए। पहली राजनीति कोई समाजसेवा नही है। वह मनी एंड मसल पावर वाला नशा है जो हर कोई कम ज्यादा चाहता है। इसके लिए वह तमाम हथकंडे अपनाता है जो उसे कुर्सी पर बैठा दे। इसी तरह मीडिया कोई चौथा स्तंभ या जनता की आवाज नही है। वह सूचनाओं का व्यवसाय है। जिसे चलाने के लिए तमाम संशाधनों की जरूरत होती है। जहा तक आमजन की बात है। वह भी कही जाति धर्म में बंटा हुआ है तो तो कही कच्चे लालच में अपने वोटों का सौंदा करते नजर आते हैं। यही वजह है की इनके वोटों से देश की संसद ओर प्रदेश की विधानसभाओं में आधे से ज्यादा सांसद और विधायक कई तरह के संगीन अपराधों में दागदार होते हैं ओर कानून की आड में अपना समय भी पूरा कर जाते हैं। चुनाव में पैकेज लेने के लिए मीडिया टीम को कितनी कठोर मेहनत करनी होती है। इसकी कोई सीमा नही है। पैकेज देने वाला कभी उसे रात को बुलाता है तो कभी अल सुबह। जो दिन में भीड़ को देखकर नही आते वे देर रात को मुलाकात करते हैं। वजह नेताओं का असली काम भी सांझ ढलते ही शुरू हो जाता है। नेता कुर्सी के लिए कितनी मानसिक और आर्थिक प्रताड़ना झेलते हैं। यह एक दिन उनके पास रहकर महसूस किजिए। सभी के सामने हाथ जोड़ना, शरीर के अंदर का सारा प्यार, स्नेह उडेल देना। कोई नाराज चल रहा है अकेले में पैरो में पड़कर माफी मांगना। खातेदारी में कोई कमी नही छोड़ना। मीडिया वालों के तमाम तरह के नखरों को बर्दास्त करना। जिसे गाय का प्रस्ताव भी लिखना भी नही आता उसे भी यशस्वी पत्रकार घोषित कर दंडवत हो जाना। कितना बड़ा कलेजा लेकर उम्मीदवार मैदान में उतरता है। इसी तरह पत्रकार पैकेज के नाम पर तमाम तरह की बदनामी झेलता है। अगर वह किसी बैनर के नीचे नौकरी करता है उसका सबसे ज्यादा मरन होता है। पहले उसी का अखबार प्रबंधन चुनाव में उस पर शक करता है। उस पर निगरानी ओर रंगे हाथों पकड़ने के लिए अपने ही अखबार में नो पैकेज का विज्ञापन जारी कर मोबाइल नंबर जारी करता है जिस पर कोई भी चुनाव में खबर के नाम पर लेन देन करने वाले अपने ही पत्रकार की शिकायत कर सकता है। यानि यह पत्रकार चार साल, 11 महीने ईमानदार ओर बेमिशाल रहता है। चुनाव में भ्रष्ट, बेईमान, चालाक नजर आता है। कमाल देखिए यही प्रबंधन अपने इन्ही पत्रकारों को उम्मीदवार के पास पैकेज बुक करने के लिए भेजता है। सहमति होने पर खबरें लगनी शुरू हो जाती है। बात नही बनी तो कोई खबर नही। अगर चुनाव में बिजनेस निर्धारित टारगेट से कम हुआ तो पत्रकार ओर विज्ञापन वालों की नौकरी पर खतरा मंडरा जाता है। उनकी जांच शुरू हो जाती है की पैकेज के नाम पर कहीं वे अपना खेल तो नही कर गए। सोचिए इतना सबकुछ बर्दास्त करने बाद भी आमजन मीडिया को पैकेज के नाम पर बदनाम करने में कोई कसर नही छोड़ता। मीडिया झूठी खबरें दिखाता या पढ़ाता है तो देखना और पढ़ना बंद कर दीजिए। नेता कोरी झूठ बोलता है उसे वोट मत दीजिए। बात खत्म.. क्यों टेंशन ले रहे हो। हर बार चुनाव में इस तरह की दुकानें लगती रहती है।