बेटियां कभी बोझ नही होती, शादियों में फिजूलखर्ची को खत्म तो कीजिए
रणघोष अपडेट. रेवाड़ी
भारत में शादियां सामाजिक प्रतिष्ठा और वैभव के प्रदर्शन के साथ–साथ फिजूलखर्ची के लिए भी मशहूर रही हैं। सामाजिक हैसियत बरकरार रखने के लिए शादी समारोहों में एक बड़ी धनराशि खर्च कर दी जाती है। सवाल यह है कि महज दिखावे के इन प्रतीकों को अपनाने की उपयोगिता क्या है? क्या साधारण या सादगीपूर्ण विवाह सफल या टिकाऊ नहीं होता? विडंबना यह है कि दहेज के साथ–साथ शादी में पानी की तरह पैसे बहाने की परंपरा सामाजिक अभिशाप बन चुकी है। कहीं न कहीं शादी समारोहों को खचीर्ला बनाने की यह परंपरागत सोच अनजाने ही लैंगिक भेदभाव को भी बढ़ावा दे रही है।
रविवार को हरियाणा के रेवाड़ी जिले के गांव जैतपुर शेखपुर से शादी को लेकर बेहतर बदलाव की शुरूआत हुईं। गांव जैतपुर शेखपुर में बेटी संजना की सगाई को सादगी से घर में मनाया गया। नए मेहमानों को आपस में मिलने जुलने का ज्यादा मौका मिला, नए रिश्ते को सबने ज्यादा सेलिब्रेट किया। टैंट, हलवाई और खाद्य पदार्थों का कुल खर्च आया मात्र 25 हजार। दोनों तरफ के मेहमानों ने एक दूसरे का सहयोग कर संबंधों में अपनत्व का एक्स्ट्रा मिठास घोला। यह सब संभव हुआ बहुत बड़े विवाह आयोजन स्थल की बजाय घर में आयोजन करने से। मेहमान दिल्ली, पंचकूला और लुधियाना से रेवाड़ी जिले के छोटे से गांव जैतपुर शेखपुर में आए थे। शहरों से आने वाले मेहमानों को गांव के घर में ही स्वागत करने के फैसला ‘खेती का रंगमंच’ में जीवन जीने के स्वराज विचार के तहत लिया गया। पिता अजीत सिंह यादव ने बताया कि उनके बच्चे जुगनू क्लब में बचपन से एक्टिव सदस्य रहे हैं। यह फैसला लेने की हिम्मत उनको वहीं से मिली और मैंने उनका साथ दिया। “शुरू में तो मैं आशंकित था लेकिन अब सफल आयोजन के बाद बहुत अच्छा महसूस कर रहा हूं।“ उन्होंने इसी विचार में वर पक्ष के शामिल होना भी अपना सौभाग्य समझा। संजना की मां निर्मल यादव ने कहा कि शादियों में बेतहाशा फिजूलखर्ची को रोकने की हिम्मत खुद से दिखानी होगी। यदि समाज में यह करने की हिम्मत सभी दिखाएं तो बेटियां कभी बोझ नहीं लगेंगीं और बेटियां ना कोख में ना बाद में मारी जाएंगी। संजना कहती है कि माता पिता ने पढ़ाई पर खर्च किया है बाद में उनपर और बोझ क्यों पड़े। संजना गवर्मेंट कॉलेज रेवाड़ी से स्नातक करने के बाद मीरपुर यूनिवर्सिटी में लॉ की पढ़ाई कर रहीं हैं। मंगेतर पढ़ाई उपरांत चण्डीगढ़ में बहुराष्ट्रीय इलेक्ट्रिकल स्विच कम्पनी में सेल्स विभाग में कार्यरत हैं। उनके पिता कोरोना में चले गए थे उन्हें भी सादगी से शादी का मनाया जाना बहुत भा रहा है। संजना के दोनों भाइयों और दोस्तों ने मिल कर काम संभाला। वेटर की बजाय खुद सब परोसा। फोटोग्राफर की भी जरूरत नहीं समझी। फोटोग्राफर के बिना फोटो बगैर टोका–टाकी के खूबसूरत खींची।

आइए शादी के नाम पर फिजूलखर्ची की बीमारी को समझे
भारत जैसे पितृ–प्रधान देश में बेटियों के जन्म के साथ ही माता–पिता उसकी शादी की चिंता करना शुरू कर देते हैं। वे अपनी बेटी के नाम पर पैसे जमा करने लग जाते हैं, ताकि दहेज और शादी–समारोह के खर्चे का उचित बंदोबस्त हो जाए। दहेज और विवाह के महंगे आयोजन की चिंता की वजह से भी लोग बेटियों को जन्म देने से कतराते हैं। यही वजह है कि उन्हें घर–परिवार में बोझ समझा जाता है। ग्रामीण अंचलों में बालिका शिक्षा पर पर्याप्त ध्यान न देने की एक बड़ी वजह यह रही है कि बेटी के नाम पर संचित धन शादी और दहेज में खर्च किए जाते हैं, उसकी पढ़ाई में नहीं। खेती का रंगमंच’ के रचनाकार और इस आयोजन के योजनकार योगेश्वर का कहना है की अगर शादियां सादगीपूर्वक होने लगें तो लोग बेटियों को बोझ समझना छोड़ देंगे। बेटी के जन्म से ही उसकी शादी में होने वाले खर्च की चिंता उन्हें नहीं सताएगी। जाहिर–सी बात है कि इससे कन्या भ्रूण हत्या के मामलों में भी कमी आएगी। युवाओं को चाहिए कि शादी में बेवजह दिखावे पर पैसा बर्बाद करने के बजाय समझदारी और जरूरत के आधार पर ही व्यय करें। युवा अपने माता–पिता को समझा सकते हैं कि केवल एक दिन के आयोजन के लिए लाखों की संपत्ति को व्यर्थ कर देना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है।