विश्व दिव्यांग दिवस पर दिव्यांग जनों को समर्पित लेख

WhatsApp Image 2020-12-02 at 17.46.05रणघोष खास . मास्टर भूदत शर्मा की कलम से

“दे अधूरी पर आत्मा तो है पूरी”———————————– सरकार ने विकलांगों को दिव्यांग तो मान लिया है पर अभी भी समाज में उनको उचित सम्मान व स्थान नहीं मिलता। जिसके वो अधिकारी हैं। दिव्यांगों को आज भी समाज की मुख्यधारा में पूर्ण रूप से शामिल नहीं किया गया है। ऐसा लगता है जैसे दुनिया उनकी पहुंच से बाहर हो। उनकी छोटी-छोटी अभिलाषाएं, उदाहरण के तौर पर पढ़ना, स्कूल जाना, साथियों के साथ खेलना, पूजा – अर्चना करना, शादी करना, घर बसाना आदि भी पूरी नहीं हो पाती हैं। मानव अधिकारों के ज्ञान के अभाव व हनन के कारण देश के लाखों दिव्यांग पुरुष, महिलाएं व बच्चे सार्वजनिक जीवन में हासिये पर ठहरे हैं। स्कूलों, कॉलेजों, खेतों, खेल के मैदानों, फैक्ट्रियों, सिनेमा हॉल, बाजारों, मंदिरों व पारिवारिक कार्यक्रमों में भी कम ही नजर आते हैं या परिवार ही उन्हें नजरअंदाज करता है। दिव्यांग ग्रामीण लड़कियों व महिलाओं को भी विभिन्न विषम परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। कौन जानने की कोशिश करता है कि उनके सपने क्या है। दिव्यांगों को अपने जीवन में असंख्य बाधाओं का सामना करना पड़ता है।। सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में सड़कों, पेयजल के स्रोतों व स्कूलों की दूरी उनके लिए मुश्किल का कारण बन जाती है। मंदिर भी ज्यादातर ऊंचे स्थानों पर स्थित होते हैं। कई जगह समाज का रवैया उनके प्रति ज्यादा मददगार नहीं होता। उनको दया का पात्र समझा जाता है। कई जगह कभी-कभी उन्हें मजाक का पात्र भी बनाया जाता है जिसके कारण उन्हें शर्मिंदगी का सामना करना पड़ता है। कईयों के परिवार के सदस्य भी उनके प्रति पर्याप्त संवेदनशील नहीं होते हैं नतीजतन दिव्यांगों में अकेलेपन की भावना पनप जाती है। उन्हें ऐसा महसूस होता है कि वह दूसरों पर बोझ हैं जिससे उनके आत्मसम्मान को ठेस पहुंचती है। कई जगह अक्षर कुछ घरों में दिव्यांगों को नजरअंदाज करके केवल कमाऊ लोगों पर ही विशेष ध्यान दिया जाता है जबकि दिव्यांगों की मूलभूत आवश्यकताएं भी पूरी नहीं की जाती। इसके अलावा दिव्यांगों की शिक्षा की स्थिति भी सोचनीय है क्योंकि सुदूर ग्रामीण इलाकों में कई स्कूलों में कई जगह न तो रैम्प हैं, न विशेष वातावरण और ना ही विशेष प्रशिक्षित अध्यापक हैं। जिन घरों में महिलाओं को मजदूरी पर जाना पड़ता है वे अपने दिव्यांग लड़के लड़कियों को पढ़ने ही नहीं भेजती, क्योंकि उन्हें अपने छोटे बहन भाइयों का ध्यान रखना पड़ता है और घर का सारा काम करना पड़ता है लेकिन उनकी देह तो अधूरी है पर आत्मा तो पूरी है। अतः हमें दिव्यांगों को भी विकास व समृद्धि के समान अवसर प्रदान करने होंगे इसके लिए उन्हें विशेष परिस्थितियों व माहौल प्रदान करना होगा, क्योंकि उनका भी अपना व्यक्तित्व, आकांक्षाएं, ख्वाहिशें, कौशल व क्षमताएं हैं जिससे वे समाज में अपना वजूद बना सकें और गरिमामय जीवन व्यतीत कर सकें। किसी ने ठीक ही कहा है- “कभी सर्दी कभी गर्मी, ये तो कुदरत के नजारे हैं। प्यास उनको भी लगती है, जो दरिया के किनारे हैं।”
इसके अलावा दिव्यांगों को भी अपने अधिकारों व कर्तव्यों के प्रति सचेत होने की आवश्यकता है तथा वे अपने आप को कभी भी हीन न समझें और अपनी दिव्यांगता को ढाल बनाकर जीवन पथ में आगे बढ़ें तथा अधिक से अधिक ज्ञान अर्जित करने व शिक्षित होने तथा आत्मनिर्भर बनने की कोशिश करनी चाहिए। विषम परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करना चाहिए व कभी भी हिम्मत नहीं हारनी चाहिए क्योंकि – “हिम्मत ए मर्दा, मर्दा ए खुदा।” किसी ने ठीक ही कहा है –
“कौन कहता है कि आसमां में छेद नहीं हो सकता, तबीयत से एक पत्थर तो उछालो यारो।”
लेखक- मास्टर भूदत शर्मा (राज्य शिक्षक अवॉर्डी)
गांव व डाकखाना – कोसली जिला रेवाड़ी (हरियाणा)

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