मरीजों को लूटकर ही अस्पताल जिंदा रह सकते हैं नहीं तो खुद खत्म हो जाएंगे
रणघोष खास. सुभाष चौधरी
हर रोज प्राइवेट अस्पतालों में इलाज के नाम पर मरीजों के परिजन एवं डॉक्टरों के बीच होती भिड़ंत का असल सच सामने आ गया है। दरअसल मरीजों को इलाज- दवा के नाम पर लूटना अस्पतालों के लिए बेहद जरूरी ओर मजबूरी बन चुका है। अगर वे ऐसा नहीं करेंगे तो अस्पताल एक दिन घाटे मे जाकर खत्म् हो जाएंगे। जिसका बड़ा खामियाजा उन नए डॉक्टरों को भुगतना पड़ेगा जो पहले पढ़ाई के नाम पर करोड़ों रुपए खर्च करते हैं उसके बाद सीधे हैसियत से बाहर जाकर नए अस्पताल को खोलते हैं जिसका खर्चा इतना बेहिसाब होता है कि उसे रिकवर करने के लिए मरीजों को हर हालत में लूटना जरूरी हो जाता है।
आइए एक नए अस्पताल की केस स्टडी से इस समझते हैं
हरियाणा के रेवाड़ी से इसकी शुरूआत करते हैँ जिसकी पहचान अब देश व प्रदेश स्तर पर अस्पतालों वाले शहर के तौर पर बनती जा रही है। इस शहर में महज 6 किमी के दायरे में 150 से ज्यादा छोटे बड़े अस्पताल खुल चुके हैं। हर दो तीन माह में एक नए अस्पताल का जन्म हो रहा है। वजह मेडिकल की पढ़ाई करने के बाद यहां के युवा डॉक्टर्स सीधे अस्पताल खोलकर बहुत कम समय में बेहताशा कमाना चाहते हैं ताकि उन पर खर्च हो चुके करोड़ों रुपए वसूल हो जाए साथ ही अस्पताल का बेहिसाब खर्च भी कंट्रोल में रहे। जाहिर है इन तमाम पहुलओं को ध्यान में रखकर सबसे पहले प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार की जाती है जिसमें अस्पताल पर खर्च होने वाले करोड़ों रुपए का खर्चा कैसे वहन करना और वसूलने के बारे में विस्तार से बताया जाता है। इसमें मरीजों से इलाज के समय किस स्तर पर कैसे वसूली की जानी है उसके बारे में भी अस्पताल प्रबंधन एवं स्टाफ को बकायदा ट्रेनिंग तक दी जाती है। यही वजह है कि लगभग हर अस्पताल में मार्केटिंग के नाम पर अलग से स्टाफ नियुक्त किया जा रहा है। एचआर विंग अलग से काम करती है। विशेषज्ञों की माने तो 2016 में इस शहर के दो बड़े अस्पतालों में मार्केटिंग स्टाफ की शुरूआत की हुई थी आज नौबत यह है कि अस्पताल खोलने से पहले ही इस स्टाफ को बाजार में दौड़ा दिया जाता है।
50 से कम बैड वाले अस्पताल पर 20-25 करोड़ का खर्च
विशेषज्ञों की माने तो जमीन खरीदकर उस पर 50 से कम बैड का अस्पताल तैयार करने में कम से कम 20 से 25 करोड़ रुपए खर्च आते हैं। बैड संख्या बढ़ने पर उसकी लागत बढ़ती चली जाती है।
सरकारी पैनल लेने के लिए मोटी राशि खर्च होती है
अस्पताल को जिंदा रहने के लिए सरकारी पैनलों का लेना जरूरी है। साथ ही बीमा कंपनियों को पैनल करने के लिए अच्छी खासी रकम खर्च करनी होती है। शुरूआती चरण में नए अस्पताल को छह माह से पहले पैनल नहीं मिलता। उसके बाद आयुष्मान, ईसीएचएस, राज्य सरकार के कर्मचारियों के इलाज के लिए लाखों रुपए पैनल के नाम पर खर्च होते हैँ। इसके साथ साथ अस्तपाल के बेहतर संचालन के लिए हर महीने 30 से 40 लाख रुपए वेतन, अन्य सुविधाओं पर खर्च होता है।
ऐसे चालाकी से मरीजों को लूटा जाता है
अस्पताल में बेहतर इलाज एवं सुविधाओं के नाम पर खर्च होने वाली राशि को किसी ना किसी माध्यम से मरीजों से ही वसूल किया जाता है। इसके लिए मरीज भर्ती के समय अनावश्यक अलग अलग तरह की जांच करना,महंगी दवाइयां जिसकी एमआरपी बहुत ज्यादा होती है जबकि हकीकत में बहुत कम रेट की आती है से अच्छा खासा बिल तैयार किया जाता है। इतना ही नहीं अनावश्यक ऑप्रेशन के लिए मरीज को मजबूर करना। डिलीवरी केस में यह खेल ज्यादा होता है।
कैश लैस की वजह से मरीज चुप रहते हैं
आमतौर पर इलाज कैशलैस होने के कारण मरीज महंगा इलाज के नाम पर चुप रहते हैं। इसी का फायदा उठाकर अस्पताल प्रबंधन अच्छा खासा बिल बनाने में कामयाब होते हैं। इसलिए अस्पतालों लिए ज्यादा से ज्यादा पैनल लेने की होड़ मची रहती है। पैनल दिलाने के नाम पर भी स्वास्थ्य मंत्रालय एवं विभागों में दलालों का पूरा रैकेट काम करता है जो कागजों में अस्पतालों के लिए शर्तों को पूरा करते हैं। जितनी भी राशि अस्पताल के नाम पर खर्च की जाती है वह सारी मरीजों से ही इलाज के नाम पर वसूल की जाती है।
सरकार ईमानदारी से निगरानी रखे तो बचाव संभव
इन विशेषज्ञों का मानना है कि मरीजों को लूटने से कोई नहीं बचा सकता। यह व्यवस्था ही इस तरह से बना दी गई है कि चाहकर भी मरीज इससे नहीं लड़ सकता। ऐसे में सरकार ही ईमानदारी से अस्पतालों के तौर तरीकों पर निगरानी कर समय समय पर कार्रवाई करते हुए कुछ बचाव कर सकती है जो मौजूदा हालात में संभव नजर नहीं आता। वजह विधायक मंत्री एवं सिस्टम चलाने वाले अधिकारियों का अस्पताल प्रबंधन का सीधा संपर्क एवं संबंध रहता है जो एक दूसरे के निजी हितों को पूरा करते हैं।