पेट भूखा हो तो खेती याद आती है। सत्ता की हवस आते ही वह उसका शिकार बन जाती है
रणघोष खास. प्रदीप नारायण
हमें नहीं पता किसानों की चिंता पर सरकार कितना सच बोल रही है या सड़क पर नजर आ रहा गुस्सा हकीकत से कितना मेल खाता है। यह समय बताएगा। इतना जरूर हुआ कि कोरोना काल में मर्यादा पुरुषोतम श्रीराम कानून के रास्ते धर्म की लड़ाई जीतकर विधिवत तौर पर अपने घर अयोध्या जरूर पहुंच गए हैं। अब सवाल यह है कि श्रीराम के विराजमान होने से क्या देश की मर्यादा मौजूदा मिजाज में खुद को सुरक्षित महूसस कर रही है। अगर यह दावा सही है तो जिस रोटी से हमारा पेट भरता है उसे पैदा करने वाला अन्नदाता सड़कों पर क्यों नजर आ रहा है। किसान आंदोलन के नाम पर जब गोलियां चलती है तो यह बात जरूर जेहन में रखनी चाहिए चूल्हे पर राजनीति नहीं रोटियां बनती हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए बेशक हम शहरों में करोड़ों का घर बनाकर रहते हैं लेकिन आंगन दिखाने आज भी अपने बच्चों को लेकर गांव- खेत खलिहान में आते हैं। हम रोज किसानों से नहीं मिलते हो, उनके नाम पर बड़ी बड़ी बातें करते हो। जब गांव की तरफ कदम पड़ते हैं तो बुजुर्गों का आशीर्वाद, लस्सी, गुड़ के साथ बाजरे की रोटी का स्वाद ही खत्म होती मर्यादा को जिंदा कर देता है। यह किसान ही तो है जिसके खेत में खड़ा पीपल- नीम का पेड़ मां की गोदी का अहसास कराता है। किसान के घर में बेशक चीनी खत्म हो गई हो। उसके खेत में लहराते गन्ने यह बताने के लिए काफी है कि मां अपनी सबकी चिंता करती है। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए खेत की माटी से ही शहर का पेट पलता है। हमने अपनी नादानी हरकतों को व्यवस्था का नाम देकर आज गांव को बाजार के रास्ते ऐसी जगह खड़ा कर दिया जिसमें ना पूरी तरह भारत नजर आता है और नाही इतराने वाला इंडिया। बस नजर आता है तो खुद का चेहरा जिस पर आज गर्व करते हुए आंखें कई बार शर्म के मारे ऊपर उठने की हिम्मत नहीं जुटा पाती है। जिस दिन देश में किसान के नाम पर राजनीति का अंत हो जाएगा। खेती को मां का दर्जा मिलेगा। उस दिन हमें सचमुच राम वाला भारत मिल जाएगा। जिसमें मर्यादा सभी धर्मों को जोड़े रखती है। किसान यह सोचकर हल चलाता है रोटी का निवाला हर इंसान के पेट में जाएगा ना की घर्म के ठेकेदारों के हाथों में खेलेगा।