मन की जड़ता को तोड़ती रंगभरी
रणघोष खास. हेमंत शर्मा
बसंत दुष्ट है।उसके चाल चलन अच्छे नहीं है।बसंत काम और रति का पुत्र है, सखा भी।यह सभी वर्जनाएं तोड़ने को आतुर रहता है। इस शुष्क मौसम में काम का ज्वर बढ़ता है। विरह की वेदना बलवती होती है। तरुणाई का उन्माद प्रखर होता है।मनुष्य तो मनुष्य पेड़ पौधे भी अपने पत्ते उतार नंगे हो जाते है।यौवन हमारे जीवन का बसंत है और बसंत सृष्टि का यौवन। वसंत के आते ही जल , नभ , और थल तीनो में हलचल शुरू हो जाती है।बसंत बेपरदा है।सबके लिए खुला है। लूट सके तो लूट। कवि पद्माकर कहते हैं-‘कूलन में, केलिन में, कछारन में, कुंजन में, क्यारिन में, कलिन में, कलीन किलकंत है। बीथिन में, ब्रज में, नवेलिन में, बेलिन में, बनन में, बागन में, बगरयो बसंत है।’ बसंत में कृष्ण का मन भी विचलित होता है।उन्हे युद्ध क्षेत्र में भी गोपियाँ,वृंदावन. कदम के पेड , तालाब में नहाती सखिया,और उनके कपड़े लेकर भागना याद आता है।तभी तो कुरुक्षेत्र में खड़े होकर भी कृष्ण कहते है – ‘ऋतूनां कुसुमाकर’ मैं ऋतुओं में वसंत हूँ ।बसंत में ऊष्मा है, तरंग है, उद्दीपन है, संकोच नहीं है। तभी तो फागुन में बाबा भी देवर लगते हैं।बसंत प्रकृति की होली है और होली समाज की।होली प्रेम की वह रसधारा है, जिसमें समाज भीगता है। ऐसा उत्सव है, जो हमारे भीतर के कलुष को धोता है। होली में राग, रंग, हँसी, ठिठोली, लय, चुहल, आनंद और मस्ती है। इस त्योहार से सामाजिक विषमताएँ टूटती हैं, वर्जनाओं से मुक्ति का अहसास होता है, जहाँ न कोई बड़ा है, न छोटा; न स्त्री न पुरुष; न बैरी, न शत्रु। इस पर्व में व्यक्ति और समाज राग और द्वेष भुलाकर एकाकार होते हैं।होली,बनारस,शिव,मस्ती,भंग, तरंग और ठण्डाई ये असम्पृक्त हैं।इन्हे अलगाया नहीं जा सकता। ये उतना ही सच है जितना ‘ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या।’ बनारस की होली के आगे सब मिथ्या लगता है।आज भी लगता है कि असली होली उन शहरो में हुआ करती थी जिन्हें हम पीछे छोड़ आए हैं। ऐसी रंग और उमंग की होली जहॉं सब इकट्ठा होते,खुशियों के रंग बंटते, जहॉं बाबा भी देवर लगते और होली का हुरियाया साहित्य।जिसमें समाज राजनीति और रिश्ते पर तीखी चोट होती। दुनिया जहान के अपने ठेगें पर रखते। मुझे ये संस्कार बनारस से मिले हैं। शहर बदला, समय बदला मगर संस्कार कहां बदलते हैं? मैं नोएडा में भी एक बनारस इक्कठा करने की कोशिशों में लगा रहता हूं।और साल में एक बार बनारस पूरे मिज़ाज के साथ यहॉं जमा होता है। इस बार की रंगभरी एकादशी पर ऐसा ही हुआ। दोस्त, यार इकट्ठा हुए। उत्सव, मेलजोल, आनंद के लिए। खाना पीना तो होता ही है। मगर सबसे अहम था कुछ देर के लिए ही सही मित्रो का साथ साथ होना और साथ साथ जीना। ऋग्वेद भी कहता है- संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनासि जानताम।” अर्थात हम सब एक साथ चलें। आपस मे संवाद करें। एक दूसरे के मनो को जानते चलें। फाल्गुन शुक्ल पक्ष की एकादशी, रंगभरी एकादशी होती है। कथा है कि शिवरात्रि पर विवाह के बाद भगवान शिव ससुराल में ही रह गए थे। रंगभरी को उनका गौना होता है। गौरी के साथ वे अपने घर लौटते है और अपने दाम्पत्य जीवन की शुरूआत होली खेल कर करते है। इसीलिए काशी विश्वनाथ मंदिर में रंगभरी से ही बाबा का होली कार्यक्रम शुरू होता है।उस रोज़ मंदिर में होली होती है। दूसरे रोज़ महाश्मशान में चिता भस्म के साथ होली खेली जाती है। शिव यहीं विराजते हैं। सो उत्सव के लिए इससे अधिक समीचीन दूसरा मौका कहॉं होगा! वैसे भी होली समाज की जड़ता और ठहराव को तोड़ने का त्योहार है। उदास मनुष्य को गतिमान करने के लिए राग और रंग जरूरी है—होली में दोनों हैं। यह सामूहिक उल्लास का त्योहार है। परंपरागत और समृद्ध समाज ही होली खेल और खिला सकता है। रूखे,बनावटी आभिजात्य को ओढ़नेवाला समाज और सांस्कृतिक लिहाज से दरिद्र व्यक्ति होली नहीं खेल सकता। वह इस आनंद का भागी नहीं बन सकता। साल भर के बंधनों, कुंठा और भीतर जमी भावनाओं को खोलने का ‘सेफ्टी वॉल्व’ है होली।
पिछले छब्बीस सत्ताईस बरस से मैं होली के बहाने मित्रों को इक्कठा करता हूँ। बनारस में था तो घर में रंगभरी होती थी।लखनऊ आया तो वहॉं भी हर बरस रंगभरी का सिलसिला टूटा नही।लखनऊ में भी खानपान और संगीत बनारस का ही होता था।पं छन्नूलाल मिश्र सहित कई गायक इस जमावड़े में गा चुके हैं। जब दिल्ली आया तो यहॉ उस आत्मीयता की जड़ें सूखी मिली जो बनारस या लखनऊ में मिलती थी।मेरे लिए ये एक सांस्कृतिक झटका था। मगर मेरा आयोजन जारी रहा। एकाध बार व्यस्तता और एक साल कोरोना के कारण सिलसिला टूटा।रंगभरी के आयोजन का समय बदला,पर स्वाद नहीं।हमारी संस्कृति में उत्सव कलाओं को शोकेस करते हैं। सो इस मौक़े पर पूरब अंग का गायन भी हुआ। होरी भी गाई गई और लोकगीतों के मोती भी बिखरे। अगर आप वसंत की इस उत्सवी परम्परा को आत्मसात् नहीं करते तो आप समाज के मांगल्य को चुनौती देते है। आप इसका स्वागत करिये या न करिये यह आपकी जान नही छोड़ेगा। वसंत का यह महौल किसी को नही छोड़ता , चर अचर , जलचर , नभचर , सब को लपेटता है । पूरे प्रकृति को तहस नहस करता है । साहित्य में होली हर काल में रही है। सूरदास, रहीम, रसखान, मीरा, कबीर, बिहारी हर कहीं होली है। होली का एक और साहित्य है—हास्य व्यंग्य का। बनारस, इलाहाबाद और लखनऊ की साहित्य परंपरा इससे अछूती नहीं है। इन हास्य गोष्ठियों की जगह अब गाली-गलौजवाले सम्मेलनों ने ले ली है। जहाँ सत्ता प्रतिष्ठान पर तीखी टिप्पणी होती है। हालाँकि ये सम्मेलन अश्लीलता की सीमा लाँघते हैं, लेकिन चोट कुरीतियों पर करते हैं।होली सिर्फ उऋंखलता का उत्सव नहीं है। वह व्यक्ति और समाज को साधने की भी शिक्षा देता है यह सामाजिक विषमताओं को दूर करने का भी त्योहार है। बच्चन कहते हैं—‘भाव, विचार, तरंग अलग है, ढाल अलग है, ढंग अलग, आजादी है, जिसको चाहो आज उसे वर लो। होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर लो।’