डंके की चोट पर : हम अनाज तो रोज पका कर खाते हैं क्या कभी मुटठी भर अनाज सुंघने का प्रयास किया है
हम अनाज तो हर दिन पका कर खाते हैं। क्या कभी मुट्ठी भर अनाज सूँघने का प्रयास किया है ? फुर्सत मिले तो एक बार ही सही उसकी गंध सूँघने का प्रयास अवश्य करें। किसान के अनाज में सदियों से छल–कपट का शिकार हो रहे उनके पसीने की गंध आएगी। पीढ़ी–दर–पीढ़ी चले आ रहे पिछड़ेपन की गंध बसाएगी। पोषक तत्त्वों की गिनती करते समय कड़ी धूप में कमरतोड़ मेहनत करने वाले किसान की एकबारगी की याद दिल दहला देगी। असंख्य लीटर पसीना बहाकर खेतों की सिंचाई करने वाले भोले–भाले किसान की चमड़ी धूप में जलकर काली पड़ जाती है। विज्ञान की पुस्तकों में लिखा होता है कि ओजोन की परत पराबैंगनी किरणों से बचाती हैं, किंतु वहीं ये पुस्तकें पाठ्यक्रम–दर–पाठ्यक्रम नदारद हो रहे कृषि संबंधी यह बात बताना भूल जाती हैं कि किसानों की झुर्राई–मुरझाई काली चमड़ी से ढकी इस दुनिया को भूखों मरने से बचाती है। गाँवों में दूर–दूर तक फैली हरियाली की चादर के रेशे छिद्रान्वेषित होने लगे हैं। दिन–रात मेहनत करने वाले किसान के परिवार में नाच रही दरिद्रता भारत भाग्य विधाता से मुँह बाए प्रश्न करने पर मजबूर है। बार–बार पूछती है कि क्या अनाज पैदा करने वाला हमेशा दो जून की रोटी, कपड़ों के लिए तरसते रहेंगे? क्या उनके अनाज को खरीदने और बेचने वाले बिचौलिए तथा व्यापरी किसान को छल कपट से धोखा देते रहेंगे? खेतों की मिट्टी से सने हाथों को देखकर स्वयं किसानों को घिन्न आने लगी है। हल, खुरपी, हँसिए उसे चिढ़ाने लगे हैं। टुकड़ों–टुकड़ों में बंटी जिंदगी कभी पूरी न हो सकी। त्यौहारों–उत्सवों, शोक के दिनों में भी अपने खेतों को न भूलने वाले किसान जिसकी चिंता में डूबे रहते हैं वही एक दिन उन्हें खा जाती है। इनकी दशा ऐसी है कि आँखों में आँसू हैं पर गिर नहीं रहे हैं। बादल घेरे हुए हैं लेकिन बरस नहीं रहे हैं। उन्होंने लोगों और सरकारों को कोसना तो कब का छोड़ दिया है। अब ये अपनी फूटी किस्मत पर माथा पीट रहे हैं। अब वह दिन दूर नहीं जब खेती के दिन लद जायेंगे और कहते फिरेंगे कि कभी हाड़–मांस के किसान खेती भी किया करते थे। खेती तो खेती होती है। यह अगर कोई इमारत होती तो कब की यूनेस्को की धरोहर सूची में शामिल हो जाती। शुक्र है कि यह कला है। उससे भी जरूरी भूख मिटाने का एक मात्र उपाय। इनसे इनकी पहचान मत छीनिए।