खुलासा: केंद्र ने किए कोरोना उपचार में दो बड़े बदलाव, विशेषज्ञ बोले- हम पश्चिमी देशों के मानसिक गुलाम, सरकार नहीं कर रही शोध पर खर्च

 रणघोष खास. जीवन प्रकाश शर्मा


कोरोना वायरस संकट से निपटने के लिए एक सप्ताह के भीतर केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने दो अहम फैसले लिए हैं। सबसे पहले स्वास्थ्य विभाग ने कोविशील्ड वैक्सीन की दो खुराकों के बीच के अंतर को 6 से 8 सप्ताह से बढ़ाकर 12 से 16 सप्ताह तक कर दिया है वहीं, अब इलाज के लिए जारी किए गए प्रोटोकॉल से प्लाज्मा थेरेपी को हटा दिया गया है। ये दोनों फैसले सरकार ने यूके में किए गए रिसर्च के आधार पर लिया है जो प्रसिद्ध मेडिकल जर्नल ‘द लैंसेट’ में प्रकाशित किए गए थे। 13 मई को जारी अपने प्रेस विज्ञप्ति में स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा है, “मौजूदा रियल-लाइफ के सबूतों के आधार पर और खास तौर से यूके को देखते हुए कोविड-19 वर्किंग ग्रुप ने कोविशील्ड वैक्सीन की दोनों खुराक के बीच अन्तर को बढ़ाकर 12-16 सप्ताह तक करने पर सहमति व्यक्त की है। हालांकि, कोवैक्सीन के टीके की खुराक के अंतराल में किसी भी तरह के बदलाव करने को नहीं कहा गया है।”डॉ. वीके पॉल नीति आयोग के सदस्य हैं। पॉल इस वक्त कोविड-19 के लिए वैक्सीन प्रशासन पर राष्ट्रीय विशेषज्ञ समूह (एनईजीवीएसी) के अध्यक्ष भी हैं। डॉ. पॉल ने 15 मई को एक संवाददाता सम्मेलन में कहा कि उनकी टीम को यूनाइटेड किंगडम के बाद आत्मविश्वास मिला, जिसमें यूके ने कोविशील्ड की पहली और दूसरी खुराक के बीच तीन महीने के अंतराल को बनाए रखने के प्रोटोकॉल का पालन किया है और पाया है कि रोग की रोकथाम में टीका 60% से 80% तक प्रभावी है। डॉ. पॉल ने 18 करोड़ से अधिक आबादी का टीकाकरण अब तक किए जाने के बावजूद देश में विश्लेषण किए गए किसी भी डेटा को उपलब्ध नहीं कराया है। दिलचस्प बात ये है कि ‘द लैंसेट’ ने 19 फरवरी को यूके का ये अध्ययन प्रकाशित किया था जिसमें कहा गया था कि यदि दो खुराकों को 8 से 12 सप्ताह के अंतराल पर रखा जाए, तो सुरक्षा 55 फीसदी से बढ़कर 80 प्रतिशत से अधिक हो जाती है।

एक और फैसला 17 मई को इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) ने लैंसेट द्वारा अपना अध्ययन प्रकाशित करने के कुछ ही दिनों बाद लिया। इसमें संस्थान ने प्लाज्मा थेरेपी को कोविड उपचार प्रोटोकॉल से हटा दिया है। प्लाज्मा थेरेपी को कोविड-19 से रिकवरी ट्रायल के रूप में जाना जाता है। ये स्टडी यूके में आयोजित किया गया था, जिसके बाद आईसीएमआर ने फैसला लिया। पश्चिमी देशों में हो रहे अध्ययन के आधार पर केंद्र द्वारा कोरोना उपचार को लेकर लिए जा रहे फैसले पर स्वास्थ्य विशेषज्ञ निराशा व्यक्त करते हैं। इनका कहना है कि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि बाहरी देशों में हुए अध्ययन और शोध के आधार पर स्वास्थ्य मंत्रालय ने फैसले लिए हो। विशेषज्ञों का कहना है कि कोविड -19 के मैनेजमेंट के संबंध में हर निर्णय यूके, यूएसए या अन्य यूरोपीय देशों में किए गए शोध या द लैंसेट में प्रकाशित शोध पत्रों के आधार पर ही लिया गया है। वहीं, रेमेडिसविर, डेक्सामेथासोन, टोसीलिज़ुमैब, आदि जैसी दवाओं को कोरोना उपचार में शामिल करने और उपचार प्रोटोकॉल से हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन, प्लाज्मा थेरेपी आदि को हटाए जाने तक का फैसला पश्चिम में हुए अध्ययन के आधार पर और इसी प्रेरित होकर लिया गया है। फोर्टिस अस्पताल गुरुग्राम के प्रसिद्ध हेमटोलॉजिस्ट डॉ. राहुल भार्गव कहते हैं, “स्वतंत्रता के 74 सालों के बाद भी हम बौद्धिक रूप से आज भी पश्चिमी देशों के गुलाम हैं। हमारे वैज्ञानिक और शोधकर्ता कहां गायब हो गए हैं।”

आगे भार्गव कहते हैं, “देश में कोरोना महामारी की दस्तक होने के बाद से अब तक हमने एक भी शोध नहीं किया है जिसके आधार पर हम निर्णय ले सकें। सच तो ये है कि हम अपने स्वदेशी टीके, कोवैक्सिन के क्लिनिकल ट्रायल के डेटा को प्रकाशित करने में सक्षम नहीं हैं।”

कोलकाता स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ केमिकल बायोलॉजी के संक्रामक रोग एवं इम्यूनोलॉजी विभाग के प्रमुख पद से रिटायर्ड डॉ श्यामल रॉय, जो प्रसिद्ध इम्यूनोलॉजिस्ट हैं, वो आउटलुक से बातचीत में केंद्र को शोध के लिए पर्याप्त फंड उपलब्ध ना कराने को लेकर जिम्मेदार ठहराते हैं। वो पूछते हैं, “यूपीए के कार्यकाल के दौरान शोधकर्ताओं को अध्ययन और खोच के लिए संतोषजनक रूप से धन मिलता था, लेकिन वर्तमान सरकार अनुसंधान पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं दे रही है। हमारे पास प्रख्यात वैज्ञानिक हैं लेकिन अगर हम शोध के लिए पैसा नहीं देंगे तो वो क्या करेंगे? “

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