डंके की चोट पर : अपने पेशे के बारे में लिखना ही जिंदा पत्रकार होने का सबूत है

मीडिया ऐसी गर्ल फ्रेंड जो रोज बाजार में बॉय फ्रेंड बदल रही है..


Pardeep ji logoरणघोष खास. प्रदीप नारायण

इस लेख पर  इशारों ही इशारे में आपत्ति व सहमति जताना जायज है। इस पर टीका टिप्पणी व लिखने की हिम्मत वहीं जुटाए जो अपने पेशे व खुद के प्रति ईमानदार हो। हो यह रहा है कि पत्रकारिता  को ऐसी गर्ल फ्रेंड बनाने के लिए मजबूर किया जा रहा है जो रोज बाजार में मौसम व माहौल के हिसाब से बॉय फ्रेंड बदलती रहे। कमाल की बात यह है कि इसके चरित्र पर भी अधिकतर इलजाम वहीं लगा रहे है जो इसके एक्स बॉय फ्रेंड हो जाते हैँ।  

प्रिंट- चैनल- यू टयूब के बाद सोशल मीडिया पर इतराती, डराती, वशीभूत करती ऐसे बहुत सी खबरें अलग अलग अंदाज व अदाओं में  कब आंखों के रास्ते दिलों दिमाग के ड्राईंगरूम तक पहुंच जाती है। पता नहीं चलता। यहां तक तो एक दूसरे की गरिमा व शिष्टाचार के दायरे में ठीक है। शक की सुई उस समय घुमना शुरू हो जाती है जब वह ड्राईंग रूम के साथ लगते बेडरूम में भी झांकने लगती है। बस नहीं चलता तो इधर उधर का बहाना बनाकर टहलना शुरू कर देती है। वह गलत नहीं है। मजबूर है। बाजार में दर्शक व पाठकों के दिलों दिमाग में अब सनसनी, उत्तेजना, वासना ओर ना जाने कितनी संडाध मारती मानसिकता ने कब्जा कर लिया है। इसलिए उसे वहीं करना पड़ रहा है जो बाजार की डिमांड बोलती है।  इसलिए वह 24 घंटे बदहवास, बेबस, बेलगाम, बदतमीज,बेआबरू होकर खबरों की मंडी में इधर से उधर भागती ब्रेकिंग न्यूज की शक्ल में नजर आएगी। यह वो डरावना अहसास है जिसने पत्रकारिता  को मा से प्रेमिका बना दिया वो भी ऐसी जो भरे बाजार में बॉय फ्रेंड बदलती नजर आती है। इस लेख को पढ़कर हमारा मजाक मत बनाइएगा ओर ना हीं नसीहत दिजिएगा। हम खुलकर यह स्वीकार कर रहे हैँ यहीं हमारे जिंदा पत्रकार होने का प्रमाण है। क्या आप अपने आप से या अपने पेशे को लेकर इतना कबूल कर पाने की ताकत जुटा पा रहे हैं। अगर ऐसा कर पाए तो  यहीं आपके ईमानदार ओर जिंदा होने का सबूत है।

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