नंगा सच यह है कि नेताओं को किसानों की नहीं अपनी कुर्सी की परवाह है..

रणघोष खास. देशभर से

सर्द रातों में सड़कों पर बैठे अन्नदाता देश के सियासी भाग्यविधाताओं की साख पर कलंक है। पक्ष विपक्ष की सियासी थाली में किसान संदेहों में घिर कर इधरउधर लुढ़कते दिखाई दे रहे हैं। हाँ सरकार एवं किसानों में वार्ता का रुख सकारात्मक है। लेकिन फिर भी सियासत की स्वार्थी नजरों के निशाने पर अन्नदाताओं का पूरा आंदोलन भी है? नंगा सच यह है कि अन्नदाताओं के तथाकथित फिक्रमंद नेताओं को किसानों की कम बल्कि अपनी कुर्सी की चिंता ज्यादा है? ऐसे में किसान आंदोलन को सियासी सपोलों के जहर से बचना भी होगा! केंद्र सरकार के द्वारा लाए गए किसान बिल में चूक हुई है या कुछ गड़बड़ है? या उनके दावों के हिसाब से ठीक है।  ऐसे तमाम संदेहों को दूर करने का प्रथम कर्तव्य अब केंद्र सरकार का ही है। क्योंकि जिस तरह से देश के अन्नदाता भगवान सर्द रातों में सड़कों पर बैठे हुए हैं इसकी अनदेखी भी नहीं की जा सकती। सत्य यह भी है कि कोई भी पूर्ण बहुमत की सरकार ऐसा कोई बिल नहीं ला सकती जो किसानों के एक बड़े समूह को नाराज करने वाला हो। कुल मिलाकर अन्नदाताओं का आंदोलन स्वार्थी सियासत की नजरों में है? अन्नदाता के तथाकथित फिक्रमंद नेताओं को उनकी चिंता कम दिखती है बल्कि कुर्सी की चिंता उन्हें ज्यादा नजर आती है? अन्नदाता को इससे सचेत रहना होगा सच यह भी है कि केंद्र सरकार को भी इस पर जल्द से जल्द सकारात्मक निर्णय लेना होगा ।क्योंकि छोटे किसान अपने किसान संगठनों किसान नेताओं पर खूब विश्वास करते हैं।किसानों की यह कड़ी आम गांव तक जाती है। ऐसे में किसानों की नाराजगी केंद्र सरकार के लिए भविष्य में बड़ी मुसीबत भी बन सकती है। यदि भाजपाई अथवा सरकार के लोग सत्ता के अहंकार में पड़े रहते हैं तो यह स्थिति बड़ी ही भयावह होगी?

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