क्या सच में हम पत्रकार है, आइए पत्रकारिता से पूछते हैं..
रणघोष खास. प्रदीप नारायण
16 नवंबर 1966 को प्रेस परिषद ने अपना कामकाज शुरू कर दिया था। इसी लिहाज से इस दिन को राष्ट्रीय प्रेस दिवस मनाया जाता है। इसी बहाने हमें ढेर सारा प्यार मिल जाता है साथ में नसीहत। पिछले 10 सालों के अंतराल में पत्रकारिता की कोख से अवतरित हुए सोशल मीडिया ने आने के बाद खुद से संघर्ष करते थके- बेबस- उम्र दराज पत्रकारों को ब्यूटी पार्लर बने मीडिया हाउस में ले जाकर जवान कर दिया है। मर्यादित- संस्कारों की स्याही से लिखे शब्दों को भी अपनी हैसियत पता चल चुकी है। लिहाजा वे भी दिल बदतमीज.., मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए, इश्क कमीना है.. जैसे सुपरहिट गानों की तरह खुद को अपडेट करते चले जा रहे हैं। न्यूज चैनलों पर एंकर के उत्तेजित करने वाले सवालों पर हाथापाई करती नजर आती डिबेट, एक दूसरे को गाली गलौज करते एक्सपर्ट का सीधा प्रसारण यह बताने के लिए काफी है देश का दर्शक यही चाहता है। इसलिए यहीं चैनल सबसे ज्यादा देखे जाने वाले बन जाते हैं। टीआरपी के नाम पर बाजार उन पर विज्ञापन के बहाने नोटों की बरसात कर देता है। कमाल की बात यह है कि इन चैनलों को सबसे ज्यादा देखने वाले ही पत्रकारों को पत्रकारिता की नसीहत देते हैं। अब आते हैं प्रिंट मीडिया पर। देश में जिला स्तर पर लोकल पुल आउट संस्करण की शुरूआत का सबसे ज्यादा श्रेय दैनिक भास्कर को जाता है। आगे चलकर अन्य समाचार पत्रों को भी इसी राह पर चलना पड़ा। इसका व्यापक असर स्थानीय न्यूज चैनल एवं यूटयूब चैनल की परवरिश के तौर पर भी नजर आ रहा है। राज्यों की तमाम सरकारों को इस बात का श्रेय छोटे- बड़े मीडिया समूह को देना चाहिए कि बेरोजगारी को खत्म करने में हम मील का पत्थर साबित हो रहे हैं। हर जिले में सिस्टम को चलाने वाले अधिकारी नहीं मिलेंगे जितनी पत्रकारों की जमात। मौजूदा तस्वीर यह है कि राजनीतिक पार्टी कार्यालयों की मीटिंग में कार्यकर्ता कम पत्रकारों की तादाद बेशुमार मिलेगी। अगर एक दिन में एक ही समय पर 10 से ज्यादा पत्रकार वार्ता आयोजित की जाए तो भी हाजिरी बखूबी मिलेगी। वजह गली मोहल्लों में ब्यूटी पार्लर की तरह खबरों की दुकानें खुल चुकी हैं। वह किस मकसद से खुली है। इस पर बहस इसलिए नहीं होनी चाहिए क्योंकि अनेक मामलों में खुद को बड़ा- समझदार कहलाए जाने वाला मीडिया जब चालाकी से बाजार के रास्ते किसी असरदार न्यूज को दबाने का प्रयास करता है यहीं छोटा मीडिया उसे एक्सपोज कर भरोसे को खत्म करती पत्रकारिता को डूबने से बचा लेता हैं। पिछले कुछ सालों में कवरेज के नाम पर जो कुर्बानियां हुई हैं उसमें यही तबका शहीद हुआ है। बड़े मीडिया घरानों में अधिकांश तो नजारा ही देखते रहे। पत्रकारिता में सबसे भयावह तस्वीर यह है कि उसके दर्द को समझने वाले कम प्रवचन देने वालों की तादाद बढ़ती जा रही है। सोशल मीडिया पर ऐसी जमात हर समय नजर आएगी जो खुद के प्रति ईमानदार नहीं है लेकिन बकवास करने में सबसे आगे हैं। उन्हें समझना चाहिए कि मीडिया व्यवसाय है जिसमें नजर आने वाला पत्रकार भी इंसान है। उन्हें संविधान में विशेष दर्जा नहीं मिला हुआ है। विज्ञापन से होने वाली कमाई से वे जिंदा रहते हैं। ऐसे में मूल्यों को संभालकर इस पेशे में जिंदा रहने वालों की उम्र तब तक रहती है जब तक उसे समझने वाले अपनी जिम्मेदारी को समझ रहे हैं। हालांकि मौजूदा हालात में यह समझदारी विचार गोष्ठी व मीडिया दफ्तरों में भेजे जाने वाले प्रेस नोट के समय खबर लगाने के समय नजर आती हैं। इसलिए आधे से ज्यादा पत्रकारों को बधाई भी प्रेस नोट लगाने पर ज्यादा मिलती हैं ना की बेबाक लिखने पर। हालात यह है कि जिस तरह कोरोना, डेंगू- मलेरिया समेत अनेक बीमारियों का हमला बढ़ता जा रहा है उसी तरह छपास रोग भी तेजी से अपने पैर पसार चुका है जिसे रोक पाना अब किसी के बस की बात नहीं है। स्थिति यह है कि कुछ भी नया पुराना, गलत- सही जो कुछ भी है बस भेजो। शान के साथ छपेगा। किस किस को रोकोंगे। इसलिए इस क्षेत्र में खुद को बचाना है तो आइए पूरी ईमानदारी- जिम्मेदारी के साथ पत्रकारिता से पूछे क्या सच में हम पत्रकार हैं..।