अंतरराष्ट्रीय मामलों में भारत गूंगी गुड़िया क्यों बना रहे?

यह ठीक है कि बीजेपी के पास विदेश-नीति विशेषज्ञों का अभाव है और वह ग़ैर-भाजपाई विशेषज्ञों को संदेहास्पद श्रेणी में रखती है लेकिन हमारा विदेश मंत्रालय कोई ऐसी पहल क्यों नहीं करता, जिससे तालिबान और गनी-अब्दुल्ला सरकार भी सहमत हो। अफ़ग़ानिस्तान में स्वतंत्र चुनाव के बाद जिसकी भी सरकार बने, सभी राष्ट्र उसे मान्यता क्यों न दें? 


रणघोष खास : डॉ. वेद प्रताप वैदिक की कलम से


अंतरराष्ट्रीय राजनीति के हिसाब से कल तीन महत्वपूर्ण घटनाएँ हुईं। एक तो अलास्का में अमेरिकी और चीनी विदेश मंत्रियों की झड़प, दूसरी मास्को में तालिबान-समस्या पर बहुराष्ट्रीय बैठक और तीसरी अमेरिकी रक्षा मंत्री की भारत-यात्रा। इन तीनों घटनाओं का भारतीय विदेश नीति से गहरा संबंध है। यदि अमेरिकी और चीनी विदेश मंत्रियों के बीच हुई बातचीत में थोड़ा भी सौहार्द दिखाई पड़ता तो वह भारत के लिए अच्छा होता, क्योंकि गलवान-मुठभेड़ के बावजूद चीन के साथ भारत मुठभेड़ की मुद्रा नहीं अपनाना चाहता है। लेकिन अलास्का में दोनों पक्षों ने तू-तू—मैं-मैं का माहौल खड़ा कर दिया है। दोनों पक्षों ने एक-दूसरे के विरुद्ध खुलेआम भाषण दिए हैं। इसका अर्थ यही हुआ कि बाइडन प्रशासन में भी चीन के प्रति ट्रम्प-नीति जारी रहेगी। अब भारत को दोनों राष्ट्रों के प्रति अपना रवैया तय करने में सावधानी और चतुराई दोनों की ज़रूरत होगी।

दूसरी घटना मास्को में तालिबान-समस्या को लेकर हुई। उस वार्ता में रुस के साथ-साथ अमेरिका, भारत और पाकिस्तान के प्रतिनिधियों ने भी भाग लिया। अफ़ग़ान सरकार और तालिबान के प्रतिनिधि वहाँ उपस्थित थे ही। दोहा-समझौते के मुताबिक़ अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका और यूरोपीय देशों के जो लगभग 10 हज़ार सैनिक अभी भी जमे हुए हैं, वे 1 मई तक वापस लौट जाने चाहिए लेकिन मास्को बैठक में इस मुद्दे पर कोई सहमति नहीं हो पाई है।

तालिबान के प्रवक्ता ने कहा है कि वे काबुल में इस्लामी सरकार स्थापित करने के लिए कटिबद्ध हैं जबकि वार्तारत देशों का कहना है कि वहाँ मिली-जुली सरकार बने। यदि 1 मई को विदेशी फौजों की वापसी नहीं हुई तो तालिबान ने सख़्त कार्रवाई की धमकी दी है।

आश्चर्य है कि वहाँ भारत गूंगी गुड़िया क्यों बना रहता है? वह कोई पहल क्यों नहीं करता है? वह अमेरिका का पिछलग्गू क्यों बना रहता है?

यह ठीक है कि बीजेपी के पास विदेश-नीति विशेषज्ञों का अभाव है और वह ग़ैर-भाजपाइ विशेषज्ञों को संदेहास्पद श्रेणी में रखती है लेकिन हमारा विदेश मंत्रालय कोई ऐसी पहल क्यों नहीं करता, जिससे तालिबान और गनी-अब्दुल्ला सरकार भी सहमत हो।

अफ़ग़ानिस्तान में स्वतंत्र चुनाव के बाद जिसकी भी सरकार बने, सभी राष्ट्र उसे मान्यता क्यों न दें?

तीसरी घटना है, अमेरिकी रक्षामंत्री लॉयड आस्टिन की हमारे नेताओं से भेंट। वे रूसी एस-400 प्रक्षेपास्त्रों की बात ज़रूर करेंगे। वे अपने हथियार भी बेचेंगे लेकिन भारत को सावधान रहना होगा कि अफ़ग़ानिस्तान में वे अमेरिका की जगह भारत को फँसाने की कोशिश नहीं करें।

(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)

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