हवाओं में जहर फैलाने वाले राक्षस हैं.. हे राम इनका वध करो..

पटाखे छुड़ाकर प्रदूषण फैलाने वाले यह समझ ले उन्हें जिंदगी में कोई अधिकार नहीं वे पर्यावरण पर प्रवचन दें चिंता करे। ऐसे दोगले चरित्र वाले इस धरती पर सबसे खतरनाक वायरस है। इसीलिए एक-एक दीप को ज्ञान की मशाल में बदल देने का समय आ चुका है। जेहन में समा लिजिए हवा मां है कोई झोंका नहीं..।


रणघोष खास. प्रदीप नारायण 

हे मां (हवा) हम तेरे लायक नहीं है। दीवाली पर खुशियों के नाम पर पटाखे छुटाकर तेरा गला घोंटते हैं तुझे तड़फा- तड़फा कर मारते हैं। हमारी जुबां पर राम है चरित्र रावण- कंस जैसा है। हम कर्म नहीं कुकर्म करते हैं मां। कोई पूछे किस शास्त्र में लिखा है कि जो मां हवा बनकर हमारी जिंदगी को हर पल संवारती है। हमारे शरीर में रंगत लाती है। वह एक झन के लिए इधर उधर हो जाए हमारी जान निकल जाती है। हजारों- लाखों रुपए का टूर पैकेज बनाकर हम उसकी तलाश में इधर उधर भटकते रहते हैं। जब दीवाली आती है हम यहीं इंसान अपनी खोखली- पांखडी- दिखावी खुशी की हसरत को  पूरा करने के लिए इसी मां को जहरीली हवाओं के बीच छोड़कर तिल- तिलकर मरने के लिए छोड़ देते हैं। हद देखिए रात भर पटाखे जलाकर उसे छलनी करने वाले सैर सपाटे के नाम पर अगली सुबह इसी मां की बांहों में समाने के लिए आतुर रहते हैं। कितने घिनौने हो गए हैं हम। बचपन में हमने भेड़िया- लोमड़ी की कहानियां सुनी थी जो अपने शिकार को हासिल करने के लिए सभी हदों को कर देते थे। इन जानवरों की प्रवृति अब इंसानी शक्ल में आ चुकी हैं। फर्क सिर्फ शरीर की अलग अलग बनावट का है। हम जानते हुए भी जानबूझकर भूलते हैं कि हमारे शरीर के रोम रोम की चिंता करने वाली हवा भी मां है। एक वो मां जिसने 9 महीने अपने गर्भ में रखकर हमें जन्म दिया। जब तक जीवित रहती हैं सुबह शाम हमारी  चिंता करती हैं। दूसरी वो जो नजर नहीं आती। हर समय किसी ना किसी बहाने के  खिलखिलाकर- मुस्कराते हुए हमारी सांसों में समाकर चुपके से अहसास कराती है मै हूं ना.. । घर में नजर आने वाली मां का हम कितना ख्याल रखते हैं यह निजी मसला है। शरीर में आक्सीजन बनकर हमारी सांसों को जिंदा रखने वाली मां निजी नहीं है वह संपूर्ण सृष्टि की रचियता है। पांच रोज पहले 31 अक्टूबर को ग्लासगो सम्मेलन के बहाने धरती पर बसे देशों के मुखिया अपनी इस मां को बचाने के लिए एकजुट हुए। कई सालों से हम मां की चिंता करने का नाटक करते आ रहे हैं। इसलिए मां आज भी जहरीली हवाओं के चंगुल से बाहर आने के लिए तड़फड़ा रही है। आज तक समझ में नहीं आया हम दीवाली क्या सोच कर मनाते हैं। कायदे से यह दिन हमें मर्यादा पुरुषोतम श्री राम के चरित्र को जीवन में अपनाने के लिए एक आदर्श राज्य-व्यवस्था के लिए प्रेरित करता है। यह दिन हमें  यह अवसर प्रदान करता है कि अभी भी हमारे समाज में कितने घरों में ग़रीबी के कारण दीये नहीं जलाए गए हैं। उनके घरों में खुशियां लाने की बजाय हम आसमान को पटाखों के शोर ओर निकलने वाली जहरीली गैसों से भरकर राक्षसों की तरह ठहाके लगा रहे हैं। क्या यहीं धर्म है। ऐसा करना अगर सही है तो समझ लिजिए हम दीवाली नहीं अपने वजूद का दीवाला निकाल रहे हैं। पटाखे छुड़ाकर प्रदूषण फैलाने वाले यह समझ ले उन्हें जिंदगी में कोई अधिकार नहीं वे पर्यावरण पर बात करें चिंता करे। ऐसे दोगले चरित्र वाले इस धरती पर सबसे खतरनाक प्राणी है। इसीलिए एक-एक दीप को ज्ञान की मशाल में बदल देने का समय आ चुका है। जेहन में समा लिजिए हवा मां है कोई झोंका नहीं..।

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