बेहूदा सवालों से खुद की अस्मत लूटाता मीडिया….
रणघोष खास. एक पत्रकार की कलम से
एक चैनल की डिबेट में महिला न्यूज एंकर स्वराज इंडिया पार्टी के नेता योगेंद्र यादव से किसान बिल वापसी को लेकर इस तरह बहस करती नजर आई मानो यह बिल ना होकर उसकी निजी वसीयत पर किसी ने धोखे से कब्जा कर लिया हो। इस डिबेट को देखकर लगता है कि सियासत की तरह पत्रकार बिरादरी भी बेशर्मी की हद पार कर चुकी है। यह सिलसिला कहां जाकर रुकेगा, कोई नहीं जानता। पर यह तय है कि हम लोगों की जमात में अब ऐसे पेशेवर भी दाखिल हो चुके हैं, जिन्हें चौराहों पर अपने पीटे जाने का भी कोई भय नहीं रहा है। एक बार सार्वजनिक रूप से अस्मत लुट जाए, फिर क्या रह जाता है? जिंदगी में यश की पूंजी बार–बार नहीं कमाई जा सकती। हर रोज बेहूदा सवालों से मीडिया खुद की अस्मत लूटा रहा है। समाचार कवरेज की तीन वारदातों से यह महसूस कर सकते हैं। एक चैनल पर निहायत ही गैरपेशेवर अंदाज में एक उत्साही एंकर ने खुल्लमखुल्ला अश्लील और अमर्यादित शब्द का उपयोग शो के सीधे प्रसारण में किया। उसने आपत्तिजनक भाषा के बाद रुकने और माफी मांगने की जरूरत भी नहीं समझी। दूसरे चैनल पर एक वरिष्ठ एंकर को महात्मा गांधी के पूरे नाम का सही उच्चारण करने में एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ा और उस दौरान भी एक बार सही, नाम नहीं पढ़ पाने के लिए उसे दर्शकों से माफी मांगनी पड़ी। तीसरी घटना पूर्व प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह के साथ बेहद अपमानजनक और शिष्टाचार के खिलाफ बर्ताव की है। एक मंत्री उन्हें देखने गया और अपने साथ एक फोटोग्राफर को ले गया। पूर्व प्रधानमंत्री खुद उस समय फोटोग्राफर को रोकने की स्थिति में नहीं थे। वे संभवतया दवा के असर के चलते नींद में थे। लेकिन उनके परिवारजनों ने उस फोटोग्राफर को कई बार रोका। इसके बावजूद वह फोटोग्राफर नहीं रुका और मर्यादा की सारी सीमाएं लांघते हुए तस्वीरें लेता रहा। मंत्री जी ने भी उसे रोकने की जरूरत नहीं समझी। बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती। वे तस्वीरें मीडिया में जारी कर दी गईं। बाद में परिवार के लोगों ने इस पर गंभीर एतराज किया। इसके बावजूद पत्रकारिता के किसी भी हिस्से से उस छायाकार की निंदा के स्वर नहीं सुनाई दिए। तीनों श्रेणी की समाचार जानकारियां गंभीर अपराध से कम नहीं हैं। उन्हें कौन सजा देगा, इसका निर्धारण करने वाली एजेंसियां भी अभी तक चुप्पी साधे हुए हैं। इसके अलावा प्रेस काउंसिल तथा टीवी चैनल्स की संस्था ने भी इनका कोई संज्ञान नहीं लिया। इसका मतलब यह भी निकाला जाना चाहिए कि जिस तरह राजनीति का अपराधीकरण हमने मंजूर कर लिया है, उसी तरह की गुंडागर्दी पत्रकारिता का हिस्सा बनती जा रही है और किसी भी स्तर पर चिंता नहीं दिखाई दे रही है। वरिष्ठ संपादक राजेंद्र माथुर पत्रकारिता में इस तरह की बढ़ती प्रवृति से प्रसन्न नहीं थे। वे मीडिया को किसी की यश हत्या करने की आदत को अच्छा नहीं मानते थे। वे कहा करते थे कि जीवन से ज्यादा चरित्र महत्वपूर्ण माना जाता है। जिंदगी क्या है। आदमी अपना मर जाना पसंद करेगा, लेकिन अपने यश का खत्म हो जाना कोई पसंद नहीं करेगा। यश का मर जाना, इंसान के अपने मर जाने से भी ज़्यादा महत्वपूर्ण होता है। किसी की यश हत्या आप इतनी आसानी से कैसे कर सकते हैं? नौ फरवरी 1990 को उन्होंने एक कार्यक्रम में कहा था, ’मान लीजिए पत्रकार एक दस–बारह साल का बच्चा है। वह काला पेंट और ब्रश लेकर बगीचे में जाता है। वहां कुछ मूर्तियां भी हैं। वह शरारती बच्चा किसी मूर्ति के चेहरे पर कालिख पोत देता है। किसी पर मूंछ बना देता है। कोई मूर्ति काले रंग से अपने पर दाढ़ी लगी पाती है। किसी प्रतिमा को महिला से पुरुष बना देता है तो किसी को पुरुष से महिला बना देता है। इसके बाद उन मूर्तियों के पास लगातार कई दिन चाहने वाले और रिश्तेदार जुटते हैं। वे चौंकते हैं और मूर्तियों के जीवित संस्करणों से पूछते हैं कि अरे, यह कैसे हो गया? आप तो कभी मूंछ वाले नहीं थे। अखबार में तो मूंछ लगी है। दूसरे से कोई पूछता है कि आप तो पुरुष हैं। अखबार में तो महिला प्रकाशित हुआ है। वे बेचारे सफाई देते फिरते हैं कि यह तो पत्रकारों ने छाप दिया। ऐसे तो हम थे ही नहीं। कैसे पत्रकार हैं? कम से कम मुझसे पूछ तो लेते कि मेरे मूंछ हैं या नहीं। इसे आप गैर जिम्मेदार पत्रकारिता का नमूना मान सकते हैं।’ इस तरह किसी की यश हत्या से हमें बचना होगा मिस्टर मीडिया!