रणघोष खास. डॉ. कार्तिक श्रीधर
इक्कीसवीं सदी में प्रभुत्व सूचना और ज्ञान से संचालित समाज का है। उद्योगीकरण और आर्थिक विस्तार से दुनियाभर में तकनीकी बदलाव हो रहे हैं। ऐसे में विश्वविद्यालयों से सामाजिक बदलाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने और 19वीं सदी से पारंपरिक रूप से चले आ रहे एक-विषयी ढांचे की बाधा को तोड़ने की उम्मीद की जा रही है। समाज के विकास में शिक्षा का महत्व सर्वोपरि है, जो प्रौद्योगिकी और आर्थिक वृद्धि लेकर आता है। समाज का सर्वाधिक विकास तभी हासिल किया जा सकता है जब लोगों के चहुंमुखी विकास के लिए शिक्षा का स्तर बढ़ाया जाए। समाज की आकांक्षाओं, मूल्यों और विकास की प्राथमिकताओं के लिए उच्च शिक्षा अहम है। इन सबका नियमित मूल्यांकन और सुधार किया जाना चाहिए।
45 हजार से अधिक उच्च शिक्षा संस्थानों के साथ भारत के पास दुनिया की सबसे बड़ी उच्च शिक्षा प्रणाली है। साल 2001 से इसमें चार गुना वृद्धि हुई है। लेकिन यह सेक्टर अब भी अपर्याप्त फंडिंग, छात्रों को रोजगार मिलने में दिक्कतों, अध्यापन के निम्नस्तरीय मानक, खराब गवर्नेंस और जटिल रेगुलेटरी प्रक्रिया जैसी चुनौतियों का सामना कर रहा है। भारत की जनसंख्या का जो ट्रेंड है, उसके आधार पर यह जल्दी ही चीन को पीछे छोड़कर दुनिया की सबसे अधिक आबादी वाला देश बन जाएगा। इस लिहाज से आने वाले वर्षों में उच्च शिक्षा की मांग भी तेजी से बढ़ेगी।भारत की उच्च शिक्षा प्रणाली पहले चुनिंदा लोगों की जरूरतें पूरी करने के मकसद से तैयार की गई थी। अब उसे ज्यादा लोगों के काम लायक बनाने के लिए बदलाव किया जाना चाहिए। देश में अभी 1,043 विश्वविद्यालय हैं। इनमें 49 केंद्रीय विश्वविद्यालय, 405 राज्य विश्वविद्यालय, 135 राष्ट्रीय महत्व के संस्थान, 126 डीम्ड टू बी यूनिवर्सिटी और 328 निजी विश्वविद्यालय हैं। इनके अलावा 42,343 कॉलेज और 11,779 स्टैंडअलोन संस्थान हैं। यह संख्या लगातार बढ़ रही है।उच्च शिक्षा में अभी करीब 3.5 करोड़ छात्र-छात्राओं ने दाखिला ले रखा है। इनमें 1.96 करोड़ छात्र और 1.89 करोड़ छात्राएं हैं। यानी कुल एनरोलमेंट का 49 फीसदी छात्राएं हैं। साल 2025 तक उच्च शिक्षा में दाखिला लेने वाले सबसे अधिक छात्र और छात्राएं भारत में ही होंगी। 2030 तक उच्च शिक्षा ग्रहण करने वाले सबसे अधिक युवा भारत में होंगे।
उच्च शिक्षा की चुनौतियां
भारत की उच्च शिक्षा प्रणाली दुनिया की सबसे बड़ी होने के बावजूद इसे अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। ये चुनौतियां पठन-पाठन की गुणवत्ता, सरकारी-निजी भागीदारी, विदेशी संस्थानों का प्रवेश, रिसर्च क्षमता में वृद्धि और फंडिंग, इनोवेशन, अंतरराष्ट्रीयकरण, वैश्विक अर्थव्यवस्था की बदलती मांग जैसे क्षेत्रों में हैं। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बढ़ती मांग को देखते हुए बीते दो दशकों में अनेक प्रयास हुए हैं, लेकिन नई चुनौतियां भी लगातार उभर रही हैं।अखिल भारतीय उच्च शिक्षा सर्वेक्षण (एआइएसएचई) के अनुसार 18-23 आयु वर्ग में भारत का ग्रॉस एनरोलमेंट अनुपात (जीईआर) 27.1 फीसदी (एआइएसएचई 2019-20) है। यह 36.7 फीसदी के वैश्विक औसत से बहुत कम है। छात्र जो शिक्षा ग्रहण करते हैं और रोजगार के लिए उन्हें जिस कौशल की जरूरत होती है, उनमें भी बड़ा अंतर होता है। इसकी प्रमुख वजह है उच्च शिक्षा संस्थानों में गुणवत्ता की कमी। इसके अलावा पाठ्यक्रम में कौशल विकास का न होना भी एक कारण है। उच्च शिक्षा संस्थान इन दिनों शिक्षकों की भीषण कमी से जूझ रहे हैं। अनुमान है कि इन संस्थानों में 30 से 40 फीसदी फैकल्टी की जगह खाली है, क्योंकि उन पदों के लिए योग्य लोग ही नहीं मिलते हैं। इससे छात्र-शिक्षक अनुपात असंतुलित हो गया है। हाल के दशकों में सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त उच्च शिक्षा संस्थानों में फंडिंग का ट्रेंड देखें तो केंद्रीय विश्वविद्यालयों को ज्यादा फंडिंग हुई है। हमें व्यवस्था को मजबूत बनाने की जरूरत है ताकि गुणवत्ता सुनिश्चित हो। इससे रोजगार पाने योग्य ग्रेजुएट की संख्या बढ़ेगी।
रिसर्च और अध्यापन को अलग करने के लिए अनेक प्रयासों की जरूरत है। बदलते समय के साथ लचीले पाठ्यक्रम की भी आवश्यकता है। पाठ्यक्रम तय करने और कौशल विकास में नियोक्ता की भागीदारी बढ़ानी चाहिए। इसके अलावा अंतर-विषयी शिक्षा के अवसर उपलब्ध कराए जाने चाहिए। गुणवत्तायुक्त अध्यापन की कमी, पुराने पड़ चुके पाठ्यक्रम और पुरानी शिक्षण विधि ने प्रशिक्षित फैकल्टी की कमी की समस्या को और बढ़ाया ही है। छात्रों को विभिन्न तरह की स्किल विकसित करने के पर्याप्त अवसर मिलने चाहिए। इनमें एनालिटिकल रीजनिंग, क्रिटिकल थिंकिंग, प्रॉब्लम सॉल्विंग और कोलैबोरेटिव वर्किंग जैसी स्किल शामिल हैं। इनकी पढ़ाई और इनका मूल्यांकन इस तरह हो कि छात्रों को रटना न पड़े। बहु-विषयी रिसर्च के अवसर न होने के कारण विज्ञान और समाजशास्त्र, दोनों में क्वालिटी रिसर्च की कमी है। इससे उद्योगों के साथ जुड़ाव प्रभावित हुआ है।उच्च शिक्षा संस्थानों की विभिन्न चुनौतियों के समाधान के लिए रचनात्मक और गैर-पारंपरिक सोच का होना भी आवश्यक है। आज के प्रौद्योगिकी आधारित वातावरण में क्विक रेस्पांस कोड (क्यूआरसी) के साथ ओपन एजुकेशन रिसोर्स (ओईआर) और मैसिव ओपन ऑनलाइन कोर्स (एमओओसी) के रूप में अनेक संसाधन उपलब्ध हैं। कोविड-19 के समय में जब शारीरिक दूरी एक नया सामान्य बन गई है, ऑनलाइन संसाधनों और रिमोट लर्निंग टूल का इस्तेमाल ज्यादा प्रासंगिक हो गया है। फैकल्टी को इस तरह प्रशिक्षित किया जाना चाहिए कि वे उत्साही, इनोवेटिव और प्रयोगधर्मी रहें तथा पढ़ाने में टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करने में सक्षम हों।
गवर्नेंस के मौजूदा मॉडल से उच्च शिक्षा संस्थानों की स्वायत्तता प्रभावित होती है। इसका एक कारण तो यह है कि सरकार और नियामक विश्वविद्यालयों के छोटे-छोटे कामों में भी हस्तक्षेप करना चाहते हैं। इसके अलावा क्वालिटी सुनिश्चित करने की कमजोर व्यवस्था, संस्थानों के प्रदर्शन से उनकी फंडिंग को न जोड़ने और पारदर्शी व्यवस्था न होने से भी समस्याएं बढ़ी हैं। उच्च शिक्षा में पेशेवर मैनेजमेंट के जरिए उत्कृष्टता हासिल करने के लिए नए गवर्नेंस मॉडल की आवश्यकता है जिसमें पारदर्शिता, समानता जवाबदेही और समावेशिता जैसी विशेषताओं को शामिल किया जाना चाहिए। संस्थानों को विकेंद्रीकृत गवर्नेंस की दिशा में भी कदम बढ़ाना चाहिए ताकि कामकाज के विभिन्न स्तरों पर स्वायत्तता, जवाबदेही, लचीलापन, विश्वास और पारदर्शिता कायम हो सके। भावी जरूरतें पूरी करने वाला विश्वविद्यालय बनाने के लिए रेगुलेटर को भी अपनी भूमिका बदलने की जरूरत है। वैश्वीकरण और प्रतिस्पर्धा के साथ शिक्षा के अंतरराष्ट्रीयकरण को देखते हुए उच्च शिक्षा संस्थानों को पारंपरिक विश्वविद्यालय प्रशासन का तरीका छोड़ना चाहिए, जो 19वीं सदी की जरूरतों पर आधारित है। उन्हें आधुनिक पेशेवर गवर्नेंस को अपनाना चाहिए। अगर प्रशासनिक मशीनरी में अनिवार्य कौशल, जानकारी और नजरिए का अभाव है, वह प्रगतिशील समाज की जरूरतों के मुताबिक नहीं चल रही है तो वह विश्वविद्यालय के विकास में बाधक बन सकती है। बदलती सामाजिक जरूरतों और वैश्विक ट्रेंड के मुताबिक लचीला, पारदर्शी, विकेंद्रीकृत, स्वायत्त और जवाबदेह गवर्नेंस संस्थान को आगे बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभा सकता है।