कोरोना के पहले की स्थिति में पहुँच गई है अर्थव्यवस्था?

रणघोष खास. आलोक जोशी

चालू वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही यानी जुलाई से सितंबर के बीच भारत की जीडीपी 8.4% बढ़कर 35,73,000 करोड़ रुपए पर पहुँच गई है। यह बढ़त उम्मीद से ज़्यादा है और इसके साथ ही अब अर्थव्यवस्था कोरोना काल के ठीक पहले के हाल से कुछ ऊपर आ चुकी है। साल 2019 में अप्रैल से जून के बीच देश की अर्थव्यवस्था का आकार 35.66 लाख करोड़ रुपए था। यानी कम से कम इतना तो कहा जा सकता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था ने कोरोना संकट के असर से मुक्ति पा ली है। जुलाई से सितंबर यानी वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में भारत की अर्थव्यवस्था में 8.4% की तेज़ी की ख़बर आई है। इससे पिछली तिमाही में जीडीपी में 20.1% का रिकॉर्ड उछाल आया था। लेकिन याद रहे कि पिछले साल यही दो तिमाहियाँ थीं जब भारतीय अर्थव्यवस्था औपचारिक तौर पर मंदी में चली गई थी।पिछले साल पहली तिमाही में भारतीय अर्थव्यवस्था में 24.4% की कमी आई थी और दूसरी तिमाही में 7.4% की। जीडीपी में बढ़त का आँकड़ा ठीक एक साल पहले की इसी तिमाही के मुकाबले नापा जाता है।

इस बार की जो बढ़त है वो इन बड़े बड़े गड्ढों से निकलने की कोशिश भर है। यानी असली हिसाब तो इस बात का ही लगना है कि अर्थव्यवस्था दो साल पहले जहाँ थी, वहाँ पहुँच पाई है या नहीं।

तेज़ रफ़्तार

फिर मोटा आँकड़ा दिखा रहा है कि कम से कम ऐसा तो हो गया है। और पिछली दो तिमाहियों में जीडीपी जिस रफ़्तार से बढ़ी है वह दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सबसे तेज़ रफ़्तार के आसपास है। मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि अर्थव्यवस्था की रफ़्तार उम्मीद से बेहतर ही दिख रही है। भारतीय रिज़र्व बैंक को तो उम्मीद थी कि इस तिमाही में ग्रोथ 7.9% ही रहेगी। इस लिहाज से ख़बर संतोषजनक है।लेकिन इस लिफाफे से ख़त का मजमून भाँपना मुश्किल है। यानी बात इतनी सीधी नहीं है जितनी दिख रही है। जीडीपी का आँकड़ा ठीक दिख रहा है, लेकिन उसके भीतर कई चिंताएँ छिपी हुई हैं। सबसे बड़ी फिक्र तो यह है कि अर्थव्यवस्था में जो भी सुधार या उछाल दिख रहा है उसमें सारा देश बराबर का हिस्सेदार नहीं है।

खेती

यह बात समझने के लिए ज़रूरी है कि जीडीपी आँकड़ों को थोड़ा खोलकर या फिर तोड़कर पढ़ा जाए। कोरोना की शुरुआत से अब तक भारत की इकोनॉमी के लिए सबसे बड़ा सहारा खेती और उससे जुड़ा कामकाज यानी कृषि क्षेत्र रहा है। इस बार के आँकड़े भी यही दिखा रहे हैं। खेती में 4.5 प्रतिशत की बढ़त है। दो साल का हिसाब देखें तो यह बढ़त 7.5 प्रतिशत हो जाती है।

सर्विस

मगर इसके साथ ही उम्मीद थी कि सर्विस सेक्टर में भी उछाल दिखेगा और मैन्युफैक्चरिंग भी इसके आसपास ही रहेगा। लेकिन सबसे चिंताजनक ख़बर सर्विसेज से ही आई है।सर्विस सेक्टर अकेला ही है जो अभी तक दो साल पहले की हालत में भी नहीं पहुँच पाया है। यह बड़ी चिंता इसलिए है क्योंकि इसी सेक्टर से देश की जीडीपी का 57 प्रतिशत हिस्सा बनता है।

ख़स्ताहाल

इसमें भी सबसे खस्ताहाल रहे ट्रेड, होटल, ट्रांसपोर्ट और कम्युनिकेशंस। इनमें अब भी दो साल पहले के मुकाबले करीब 10 प्रतिशत की गिरावट दिख रही है। वजह शायद यही है कि कोरोना लॉकडाउन का सबसे तगड़ा झटका इन्हीं को लगा था और इनपर लगी पाबंदियाँ भी सबसे बाद में ही हटीं या अभी हट रही हैं।पिछली तिमाही में यह कारोबार 34.3% बढ़ा था और इस तिमाही में भी 8.2% बढ़ा है। लेकिन इसके बावजूद दो साल पहले के मुकाबले यह अभी भी करीब 10 प्रतिशत नीचे ही है। यही कारोबार देश में छोटे और मझोले व्यापारियों का सबसे बड़ा हिस्सा है। जीडीपी में इसकी हिस्सेदारी लगभग 17 फीसदी होती है। मगर इस वक्त तो लगता है कि भरतीय अर्थव्यवस्था की के (K) शेप्ड रिकवरी में यह ‘के’ का नीचे वाला डंडा बना रहा है।अर्थशास्त्रियों का मानना है कि यही हाल रहा तो इस साल के अंत तक भी यह कोरोना से पहले के स्तर तक नहीं पहुंच पाएगा। और कहीं कोरोना के नए झटके की आशंका बढ़ गई तो इसकी हालत और भी खस्ता हो सकती है।

खर्च?

उधर खर्च के मोर्चे का हाल भी बहुत अच्छा नहीं दिखता। निजी खर्चा यानी प्राइवेट फाइनल कंजंप्शन एक्सपेंडिचर एक महत्वपूर्ण आँकड़ा माना जाता है। यह दिखाता है कि सरकार के अलावा देश के लोग कितना खर्च कर रहे हैं।यह आँकड़ा इस साल करीब 8.2% बढ़ा है, लेकिन जैसे ही आप दो साल पहले का यही खर्च सामने रखेंगे तो पाएंगे कि इसमें अब भी लगभग 10 प्रतिशत की गिरावट ही दिख रही है। यह रहा गैर सरकारी खर्च। और सरकार का खर्च यानी  गवर्नमेंट फाइनल कंजंप्शन तो दो साल पहले के मुकाबले करीब सत्रह परसेंट नीचे है।

 

जीएसटी

और यह तब है जबकि पहली बार जीडीपी के आँकड़ों से अर्थशास्त्री यह नतीजा निकाल रहे हैं कि जीएसटी या अप्रत्यक्ष करों से सरकार की जितनी कमाई हो रही है सब्सिडी पर उसका खर्च उससे ज़्यादा हो रहा है। यह खर्च कहां कहां हो रहा है यह तो देखना पड़ेगा। लेकिन एक बात तो पहले ही सामने आ चुकी है। सरकार ने बजट में मनरेगा के लिए जितनी रकम रखी थी वो खर्च हो चुकी है और अभी सरकार ने दस हज़ार करोड़ रुपए और इसके लिए रखे हैं। तय है कि यह रकम भी कम पड़ेगी।अर्थशास्त्रियों का कहना है कि मनरेगा में काम के लिए ज्यादा माँग आने का सीधा मतलब है कि खासकर गाँवों में लोगों को और काम नहीं मिल रहा है। यह सिर्फ सरकार के लिए आर्थिक परेशानी का कारण नहीं बल्कि इस बात का संकेत भी है कि समाज में सब कुछ ठीक नहीं है।

वाहन

इसके संकेत और जगह भी दिख रहे हैं। कारों की बिक्री के मुकाबले दोपहिया वाहनों की बिक्री की रफ़्तार कम हो रही है। यानी समाज के निचले तबके में परेशानी ज़्यादा है। कारोबार में सुधार से रोजगार की उम्मीद बढ़ती है लेकिन अब भी निजी क्षेत्र से निवेश के लिए उत्साह दिखानेवाले आँकड़े सामने नहीं हैं।सबसे बड़ी बात यह है कि अभी तक के आँकड़े तो इसलिए भी चमकदार दिख रहे हैं क्योंकि यहाँ मुकाबला पिछले साल के उस समय से है जो अब तक के इतिहास का शायद सबसे विकट समय था।नीचे गिरे हुए आँकडों के सामने यह हाल काफी अच्छा दिख रहा है।लेकिन अब आगे की राह इतनी आसान नहीं होगी। इसलिए अगले साल ग्रोथ के आंकड़े शायद इतने खूबसूरत नहीं हो पाएँगे।

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